Monday 2 February 2015

एक कविता.... बात कुछ ख़ास न थी ,/ विजय शंकर सिंह





बात कुछ ख़ास न थी ,
पल भी कुछ ख़ास न था ,
गुफ्तगू एक जारी थी,
कभी मौसम , कभी बादल
कभी दामिनी, कभी तितली,
कभी फूल , कभी खुशबू ,
कभी कुछ , कभी कुछ भी नहीं
नातमाम सिलसिले, बातों के ,
आते रहे जाते रहे !

देखता रहा तेरी आँखें ,
पढता रहा चेहरा तेरा ,
भटके भटके शब्द,
कंठ में अटक अटक ,
खो जाते वहीं, उभरे जहां से थे,
सागर की लहरों के मानिंद,
दूर कहीं जेहन में बैठ कोई
चुपचाप, एक हंसी परिहास की
उछाल देता था मुझ पर !!

कुछ तुम रुक रहे थे,
कुछ हम थम रहे थे ,
न तुम कुछ बढे ,
न मैंने कुछ कहा ,
बीत गया कितना वक़्त ,
ऊबन भी नहीं थी ,
मक़सद ए गुफ्तगू भी नहीं ,

शाम ढली , ,
दूर कहीं चाँद दिखा ,
बात तो अधरों तक आयी
आ के फिर खो गयी कहाँ !!

क्या अजीब सिलसिला था ,
फिर वही मौसम,
वही बेदर्द सियासत ,
वही फरेब गम ए रोज़गार के ,
गुफ्तगू सब पर चली.
मन में अंधड़ भी रहा ,
जो न कहना था कहता रहा  ,
जो कहने आया था , न कह सका !!!
-vss

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