Tuesday 4 November 2014

दो दंगे, दो दृष्टिकोण./ विजय शंकर सिंह



किसी भी दंगे में मैंने उन लोगों को मरते नहीं देखा है और न ही सुना है, जो इन दंगों की भूमिका बनाते और षड्यंत्र रचते हैं. जिस दिन तोगड़िया और ओवैसी जैसे धार्मिक सन्निपात के रोगी मारे जाने लगेंगे, उसी दिन से दंगे कम हो जायेंगे. मरते हैं, रोज़ कमाने खाने वाले, मरते हैं, राह चलते हुए मासूम लोग और मरते हैं वे जिनके लिए षड्यंत्र किया गया होता है, इन दंगों में निपटाने का.

सिख विरोधी दंगे साम्प्रदायिक उन्माद लिए घृणा पर सवार पर्तिशोध युक्त नर संहार था. वे तीन दिन लगा शैतान का राज है. तब के प्रधान मंत्री ने कहा था कि जब कोई बड़ा वृक्ष गिरता है तो, धरती डोलती है. ऐसे भूडोल में लुटियंस ज़ोन के बंगले क्यों महफूज़ रह जाते हैं. यह भी एक अनुत्तरित जिज्ञासा है. कांग्रेस के कुछ नेताओं का खुला हाँथ 1984 के दंगों में था. सुबूत मिले या न मिले. लेकिन तथ्य यही है. पर इन दंगों के लिए इंदिरा को याद न किया जाय यह कृतघ्नता होगी. सारी खुफिया एजेंसीज के अलर्ट के बाद, भी, इंदिरा गाँधी ने उन जवानों को ड्यूटी से हटाने या बदलने से मना कर दिया, जिन्होंने जघन्यतम स्तर की गद्दारी कर के सैन्य परम्परा को कलंकित किया है. यह इंदिरा गाँधी का उन पर ही नहीं बल्कि पूरे सिख समुदाय पर भरोसा करना था.

स्वर्ण मंदिर पर किया गया ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार, के औचित्य पर बहुत बहस होगी. पर भावना के अतिरेक के कारण यह बहस हमेशा फिसल जायेगी. जिस तरह से दुनिया के सबसे नए और जुझारू पंथ के सबसे पवित्र स्थल का बलान्नयन भिंडरावाले ने किया था, जिस पवित्र स्थल में दर्शन करने गए, पुलिस के डी आई जी अटवाल की हत्या, परिसर में कर दी गयी, वह सिख शौर्य की परंपरा नहीं थी. वह बेहद शर्मनाक और कायराना हरक़त थी. सिख गुरुओं की महान परंपरा के विरुद्ध थी. खालिस्तान , आई एस आई और पाकिस्तान का विचार था. जब क़ानून और व्यवस्था की स्थितियां बिगड़ती हैं तो, पुलिस और सुरक्षा बलों से गलतियाँ भी होती हैं. और आरोप , प्रत्यारो भी लगते हैं, फिर चीज़ें और बद से बदतर होती जाती हैं. पंजाब में यही हुआ. इन्ही सब पृष्ठभूमि में इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी. पर प्रति शोध को अगर विवेक थाम नहीं पाता है तो वह अनंत हो जाता है. फिर दंगे भड़कते हैं, कहीं कहीं सुनियोजित तरीके से, कहीं कहीं अफवाहों से स्वतः स्फूर्त.

कुछ लोग 1984 के दंगों को प्रतिक्रिया कहेंगे, कुछ लोग साज़िश. दंगा अगर स्वतः छिड़ जाय और उसे रोकने का काम न तो दलगत स्तर पर हो, और न ही प्रशानिक स्तर पर तो यह साज़िश ही कही जाएगी. जो भी हो, दंगारोपी अभी भी छुट्टा घूम रहे हैं. मुआवजा देकर अच्छा किया है सरकार ने. पर उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए जो इन दंगों के सूत्रधार रहे हैं.

गोधरा काण्ड के बाद भड़के गुजरात के 2002 के दंगों को क्या कहेंगे मित्रों ? प्रतिक्रिया , या साज़िश या बदला ? अपने अपने रूप से विवेचना करे. 1984 में इंदिरा की हत्या की प्रतिक्रिया हुयी, कुछ साज़िश रची गयी, और फिर जम कर बदला लिया गया. गोधरा में कारसेवक जला कर मारे गए, उसकी प्रतिक्रिया हुयी और बदला महीनों चलता रहा. सन 1984 में जो दंगा हुआ वह कांग्रेस के नेताओं ने किया और सरकार ध्यानस्थ मुद्रा में थी. इसी प्रकार 2002 में जो दंगा गुजरात में हुआ, वह भी प्रतिक्रया थी और उसे भाजपा के कुछ नेताओं ने भड़काया और किया, और सरकार, फिर मून्दहूँ आँख कतहूँ कुछ नाहीं !

दोनों ही दंगों को एक ही नज़र और सिद्धांत से देखें. सबका साथ सबका विकास सोशल साइट्स पर रोज़ अवतरित होने वाले प्रेरणादायक सूक्तियों की तरह न बन जाए, जिसे हम पढ़ते ही भुला देते हैं. दंगा सिर्फ दंगा है और असामाजिक तत्व, उनका धर्म और उनकी जाति जो भी हो, वह एक अपराधी है. उसके लिए क़ानून और बल का प्रयोग अनिवार्य है. दंगों को राजनीति और दलगत सम्बद्धता के चश्में से न देखें. इस से सरकार की नीयत पर अविश्वास ही फैलता है.

विजय शंकर सिंह



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