Wednesday 26 November 2014

Remembering 26 /11 Mumbai / 26 नवम्बर. 2008. स्थान मुम्बई. / विजय शंकर सिंह



26 नवम्बर. 2008. स्थान मुम्बई. 
समुद्र के रास्ते देश की आर्थिक राजधानी को तबाह करने के उद्देश्य से घुसे पाकिस्तानी आतंकवादी. 
कुल मृतक निर्दोष जन 250 लगभग. 
मारे गए आतंकवादी, एक को छोड़ कर सब. जो बचा, वह अज़मल कसाब था. 
मुक़दमा चला. जुर्म साबित हुआ. मुलजिम को मिली सज़ा ए मौत. फांसी पर लटका दिया गया. 
फ़ाइल बंद.

शहीद हुए, आई जी हेमंत करकरे, और उनके साथी. जिनके चित्र और नाम नीचे है. साथ में तीन सेना के जवान भी. एक मेजर उन्नी कृष्णन और दो अन्य. वीर कभी मरते नहीं. इन सब बहादुर जवानों का विनम्र स्मरण.

बहस शुरू हुयी. सुरक्षा के खामियों पर. पुलिस की तैयारियों पर. एन एस जी कंमोंडोस के रेसपोंस टाइम पर. बुलेट प्रूफ जैकेट्स की गुणवत्ता पर.नेवी और कोस्ट गार्ड की नाकामियों पर. गुजरात पुलिस की लापरवाहियों पर. पाकिस्तान के इरादों पर. प्रधान मंत्री के मौन पर. कसाब को परोसे गए बिरियानी पर. राज्य सरकार की असफलताओं पर और भारत सरकार की बेबसी पर.

वे फ़ाइलें जिनमे ये बहसें क़ैद हैं, आज भी सचिवालय के आलमारियों में मकड़ी के जालों के सामान निरर्थक वाग्जाल से अटी पडी हैं. हमें शहीद बहुत प्रिय हैं. शायद इसी लिए उन्हें याद करने का कोई भी अवसर नहीं जाने देना चाहते. कौआ की तरह यह भी देखते रहते हैं कि कौन श्रद्धांजलि देने नहीं आया. जो नहीं आया वह तो देशद्रोही हो ही गया. लेकिन शहादत से आप का सीना भले चौड़ा होता हो, पर उस घर पर क्या बीतती है, यह भुक्त भोगी ही जान सकता है. श्रीमती करकरे अपने पति के शहीद होने के बाद पांच साल ही जी पाईं. सरकार देती भी है बहुत कुछ. पर वह रिश्ता, रिश्ते की गरमाहट और इंसान नहीं लौटा सकती. यहां तक कि सर्व शक्तिमान ईश्वर भी नहीं.

आप को याद होगा. शहीद मेजर उन्नी कृष्णन का शव त्रिवेंद्रम में उनके घर पहुंचा था अंतिम संस्कार के लिए. केरल के तत्कालीन मुख्य मंत्री उनके घर गए थे श्रद्धांजलि देने के लिए. युवा पुत्र की मृत्यु से बड़ा आघात माता पिता के लिए कुछ भी नहीं होता, चाहे मृत्यु कितनी भी गौरव पूर्ण क्यों न हो. मेजर उन्नी कृष्णन के पिता ने उस समय मुख्य मंत्री से मिलने से मना कर दिया. वह शोकाकुल थे. अचुयतानानंदन जो मुख्य मंत्री थे ने कहा कि अगर यह शहीद का घर नहीं होता तो कोई भी नहीं आता. बहुत निंदा हुयी थी इस बयान की. जब श्रद्धा भी फ़र्ज़ अदायगी ही बन जाए तो उस श्रद्धांजलि का कोई अर्थ नहीं है. उन सिपाहियों के घर परिवार की क्या स्थिति होगी अब , मुझे पता नहीं.

एक कथा सुनें. जनरल मांट गोमरी एक अत्यंत दक्ष ब्रिटिश जनरल थे. वे एक सैनिक स्कूल की पासिंग आउट परेड का निरीक्षण कर रहे थे. निरीक्षण के दौरान तन कर खड़े एक युवा सैनिक से उन्होंने पूछा, " तुम देश के लिए क्या कर सकते हो " उत्तर मिला, " मैं देश के लिए जान दे सकता हूँ " जनरल ने एक तमाचा उस जवान को मारा और उसकी बेल्ट खींचते हुए कहा, " तुम्हे देश के जान देने के लिए नहीं, जान लेने के लिए भर्ती किया गया है." जनरल का कथन उपयुक्त था.शहीद होना एक गौरवपूर्ण मृत्यु का आलिंगन है. पर जीवित रह कर विजय प्राप्त करना और उस विजय को देखना, सबसे बड़ा गौरव है.
मुम्बई हमले की कमियों खामियों पर बहुत बहस हुयी. पर कोई भी उल्लेखनीय कार्य ऐसे हमलों को रोकने के लिए नहीं किया गया. 
-vss.


Remembering Sitara Devi / स्मृति शेष सितारा देवी / विजय शंकर सिंह


बनारस का एक मुहल्ला है, कबीर चौरा. शायद यह देश का अकेला और अनोखा मोहल्ला होगा जिससे पद्म पुरस्कार से सम्मानित सबसे अधिक कलाकारों के नाम जुड़े रहे हों. कंठे महाराज, किशन महाराज, गुदई महाराज, छन्नू लाल मिश्र, गिरिजा देवी, आदि आदि भारतीय संगीत कला के शिखर व्यक्तित्व रहे हैं. इसी मोहल्ले के रहने वाले थे, श्री सुखदेव महाराज. सुखदेव महाराज बाद में बनारस छोड़ कर कोलकाता में जा बसे. इस मोहल्ले के अलावा वाराणसी से ही संगीत के क्षेत्र में दो भारत रत्न भी है. एक प्रख्यात सितार वादक, पंडित रवि शंकर, और दुसरे मशहूर शहनाई वादक उस्ताक बिस्मिल्ला खान साहब. उस समय तक, कोलकाता देश का भव्य ललित कला केंद्र बन चुका था. उसी कोलकाता में सितारा देवी का जन्म 8 नवम्बर 1920 को हुआ था. उस दिन धनतेरस था. माता पिता, ने नाम रखा धनेश्वरी और पुकारने का नाम हुआ, धन्नो. माँ, मत्स्या कुमारी नेपाल के एक समृद्ध राजनय परिवार से थी. ललित कलाओं में उनके परिवार का स्वाभाविक रुझान था. खुद सुखदेव महाराज जो थे तो वाराणसी के ब्राह्मण, पर ललित कलाओं में उनकी भी रूचि थी और वह खुले स्वभाव के थे. बाद में धनेश्वरी से इनका नाम पड़ा सितारा देवी.

कोलकाता भारत का एक सांस्कृतिक केंद्र भी था. ललित कला की लगभग हर विधा , गायन, नृत्य, वादन, चित्र कला, मूर्तिकला आदि में नयी नयी प्रतिभाएं नए नए कीर्तिमान गढ़ रही थी. सुखदेव महाराज ने अपनी पुत्री सितारा की प्रतिभा को पहचानते हुए, उनकी शिक्षा दीक्षा, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के आधार पर दिलाई. नृत्य में इनकी प्रतिभा उभर कर आयी. इन्होंने कत्थक नृत्य शैली को अपनी प्रतिभा के लिए चुना. कत्थक , 6 शास्त्रीय नृत्य कला की एक विधा है, जो उत्तर भारत में विक्सित हुयी. कत्थक में तीन घराने हैं. ये घराने हैं, बनारस, लखनऊ, और जयपुर. घराने मूलतः राज्याश्रय के अनुसार विभक्त हुए है. मूल घराना बनारस ही है. बाद में अवध के नवाबों के द्वारा, विशेष कर नवाब वाज़िद अली शाह के काल में , जिन्हें कत्थक में बहुत रूचि थी, लखनऊ घराना लोकप्रिय हो गया. इसी तरह जयपुर नरेश द्वारा सरक्षित होने के कारण कत्थक का एक घराना वह भी बना. कत्थक मूलतः एक दरबारी नृत्य है. जब कि अन्य शास्त्रीय निर्त्य, भरत नाट्यम, कुचिपुड़ी, ओडिसी, कथकली, मणिपुरी, देव मंदिरों की उपासना या पौराणिक गाथाओं पर आधारित है. कत्थक में भी नृत्य के जो विषय चुने जाते हैं वे भी राधा कृष्ण, या रीतिकालीन परंपरा पर ही आधारित होते है. 


सितारा देवी ने सबसे पहला नृत्य का प्रदर्शन महा भारत की कथाओं के आधार पर 10 वर्ष की आयु में कोल्कता के एक विद्यालय में किया. लेकिन उन्हें प्रसिद्धि मिली, सावित्री और सत्यवान की नृत्य नाटिका से. जिसमे इन्होंने सावित्री की भूमिका में नृत्य किया था. यह एक अलौकिक कथा है. इसके दार्शनिक पक्ष पर, अरविन्द ने एक अद्भुत महाकाव्य सावित्री के नाम से अंग्रेज़ी में लिखा है. उन्होंने इस गाथा के दर्शन पक्ष को छुआ है. बाद में सितारा देवी मुम्बई आ गयीं. मुम्बई फ़िल्म नगरी के रूप में देश और दुनिया में अपना स्थान तब बना रहा था. मुम्बई में सितारा के एक नृत्य शो का जो प्रदर्शन हुआ था, उसके दर्शकों में शामिल थे, गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, काव्स जी जहांगीर, और सरोजिनी नायडू. गुरुदेव ने उनकी अद्भुद नृत्य कला को सराहते हुए, उन्हें नृत्य साम्राञी के नाम से संबोधित किया. तब तक वह नृत्य कला के संसार में अपना स्थान बना चुकी थीं.

मुम्बई फ़िल्म नगरी थी, आज भी है. 1940 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म में काम किया, फ़िल्म थी, उषा हरण. वाक् फिल्मों का दौर 1936 में आलम आरा के बनने के साथ ही शुरू हो गया था. 1951, में नगीना, 1954 में रोटी, और वतन, 1957 में अनजानी और मदर इंडिया जैसी प्रसिद्ध फिल्मों में नृत्य किये. उन्होंने अभिनय नहीं किया. मदर इंडिया का प्रसिद्ध होली गीत, इनके ही नृत्य पर फिल्माया गया है. इन्होंने के आसिफ से पहला विवाह किया फिर सम्बन्ध विच्छेद होने पर दूसरा विवाह प्रताप बरोट से किया.


सितारा देवी को 1969 में संगीत नाटक अकादमी सम्मान, 1973 में पद्म श्री, 1995 में कालिदास सम्मान से सम्मानित किया गया. बाद में एक बार इन्हें सरकार ने पद्म भूषन से सम्मानित करने का निमंत्रण भेज जिसे इन्होंने लेने से मना कर दिया. टैगोर द्वारा दिए गए नाम नृत्य साम्राञी को यह अपना सबसे बड़ा सम्मान मानती रहीं.
आज उनका 94 साल में मुम्बई में निधन हो गया. उनके निधन से शास्त्रीय नृत्य परंपरा का एक युग समाप्त हो गया. विनम्र श्रद्धांजलि.

( विजय शंकर सिंह )


Tuesday 18 November 2014

बाबा रामदेव को जेड श्रेणी सुरक्षा मिली. / विजय शंकर सिंह .




अजीब विडम्बना है, उन्हें सुरक्षा की ज़रुरत भाजपा के शासन काल में ही पडी. इस स्वर्ण युग में भी वह किस से आतंकित है ? थोड़ा सोचना पडेगा. या तो जन पर सच में खतरा है या संपर्कों के भरोसे सुरक्षा लेने की चाल है. अगर सच में ख़तरा है तो वह लोग क्या इसी सरकार में प्रोत्साहित हो गए ? आदि आदि सवाल मेरे दिमाग में उठ रहे हैं . एक सवाल यह भी उठ रहा है कि कुछ बाबा लोग अब अपरिग्रही और अहंकार मुक्त नहीं रहे.वे व्यापारी हो गए हैं.

रामदेव का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। वह लगभग बीस साल पहले योग शिविरों के माध्यम से लोगों को योग के प्रति जागृत करते रहे। योग के आदि ऋषि पातंजलि के अष्टांग योग विधा के अनुसार इन्होने योग और स्वास्थ्य के सम्बन्ध में लोगों में नयी चेतना जागृत की। परिणामतः योग के बहुत से आसान और प्राणायाम की विधियां जो गोपन थीं वह लोगों में बहुत ही प्रचारित हुईं।  योग और आसनों से ही जुड़ा एक पक्ष आयुर्वेद का भी है। आयुर्वेद रोग के निदान से अधिक उसके रोकने पर अधिक बल देता है। उन्होंने दवाइयों का कारोबार शुरू किया। इसी क्रम में वे  राजनेताओं की शरण में आये। जिसने इस सन्यासी में राजनीतिक महत्वाकांक्षा का बीजारोपण कर दिया। 

उधर दिल्ली में कांग्रेस शासन के विरुद्ध घोटालों के कारण अन्ना हज़ारे का आंदोलन शुरू हो गया था केंद्र सरकार के कई घोटाले उजागर हो गए थे। सरकार सीधे निशाने पर आ गयी थी और वह रक्षात्मक मोड़ में हो गयी थी। तभी किरण वेदी , अरविन्द केजरीवाल आदि इस आंदोलन में कूद पड़े। बाबा का रवैया इस आंदोलन के बारे में कभी ब्लो हॉट तो कभी ब्लो कोल्ड रहा। अन्ना आंदोलन जहां भ्रष्टाचार पर केंद्रित था वहीं राम देव ने 
 काले धन को मुद्दा बना लिया। काले धन को ले कर बड़ी बड़ी बातें कहीं गयी। जनता भ्रष्टाचार और काले धन इन दोनों मुद्दों पर आंदोलित थी ही। भाजपा की रणनीति और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। जब तक कांग्रेस सत्ता में थी वह राम देव के आलोचना के केंद्र में रही।  सरकार बदली तो भी  कुछ महीनों तक राम देव थोड़ा अलग थलग ही दिखे। हालांकि कि वह अलग थलग नहीं थे। अब जा कर जब उन्हें जेड श्रेणी की सुरक्षा सरकार ने दी तो उनकी चर्चा पुनः होने  लगी। 

मुझे उनके योग और उनके दवाखाने से कोई शिकायत नहीं है. योग को उन्होंने प्रचारित किया फिर इस प्रचार को कैश भी किया. उत्तराखंड  में काफी ज़मीनें भी इन्होंने लीं. इस कारण विवादों में भी रहे. लेकिन सरकार बदलते ही जेड सुरक्षा लेना सरकारी तंत्र का दुरुपयोग है. जेड श्रेणी की सुरक्षा आई बी की रपट के आधार और खतरे की आशंका के आकलन के अनुसार दी जाती है. निश्चित रूप से आई बी ने खतरे की आशंका ज़ाहिर की होगी. तभी सरकार ने सुरक्षा दी होगी. वैसे चहेतों को सुरक्षा देने की परिपाटी सभी दलों में है. दुःख है कि भाजपा की यह सरकार भी देश के किसी भी दल से चाल, चरित, चिंतन और चेहरे से अलग नहीं है.

योग बल की भी बात सुन लीजिये. राम लीला मैदान में बाबा अनशन पर बैठे थे. मुद्दा था काले धन का. एक सप्ताह के अनशन के बाद पुलिस कार्यवाही हुयी. पुलिस कार्यवाही पर सवाल भी उठे. उसकी जांच भी हुयी. और कुछ कार्यवाही भी हुयी. लेकिन बाबा जिस परिधान में चुपके से सरकते हुए पकडे गए, उस से उनकी प्रतिष्ठा ही गिरी. एक हफ्ते के अनशन में ही वह आई सी यू में दाखिल हो गए. जब की 78 दिन का अनशन, चंडीगढ़ के सवाल पर और लगभग ईतने ही दिन का अनशन आंध्र प्रदेश के सवाल पर श्री रामुलु ने किया था जब ये दोनों बाबा से उम्र में कम थे और योगी भी नहीं थे. अनशन भूखे रहना ही नहीं है. बल्कि अनशन किसी नेक और वाज़िब प्रश्न पर दृढ मनोबल से किया गया विरोध है. राम देव के पहले भी इसी मैदान में अन्ना ने अनशन किया था. दर असल बाबा का यह सारा कार्य सियासत और संतई का एक कॉक टेल है.

अगर इन्हें सुरक्षित रखना ही है तो सुरक्षा का व्यय जो भी आये इनसे वसूल कर लिया जाए. अपने खर्चे पर सुफक्षा लेने का भी प्राविधान है. जो सुरक्षा व्यय उठा सकते हैं उनसे इसका खर्च वसूला जाना चाहिए. 

-विजय शंकर सिंह .



Sunday 16 November 2014

जीतन राम मांझी का बयान और उस पर विवाद - एक ऐतिहासिक दृष्टि. / विजय शंकर सिंह.


जीतन राम मांझी बिहार के मुख्य मंत्री हैं. वह अपने दिल की बात कहते रहते है . किसी को चुभ गयी, किसी को अखर गयी, तो किसी के दिल में उतर गयी. इधर उन्होंने एक बात बहुत सच और ऐतिहासिक तथ्यों के अनुरूप कह दी. उन्होंने कह दिया कि सवर्ण विदेशी हैं. कुछ को इस लिए चुभ गयी कि विदेशी क्यों कह दिया. किसी को इस लिए अखर गयी कि अरे, जीतन राम ने कैसे कह दिया. बहुतों के दिल में भी यह बात उतरी कि जीतन राम से सच कहने का साहस दिखाया. जो भी हो, उनको जो लगा कह दिया. आप को जो समझ में जो आये आप मीमांसा करते रहिये.

आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ. यह श्रेष्ठ का एक सम्बोधन भी है. अनार्य का अर्थ होता है जो आर्य नहीं है. आर्य को विदेशी माना जाता है. उनके मूल स्थान पर बड़ी बड़ी किताबें लिखी गयी हैं. तिलक कहते हैं, वे उत्तरी ध्रुव से आये थे. उन्होंने अपनी पुस्तक आर्कटिक होम ऑफ़ द वेदाज में लंबी रातें और लंबे दिनों का विवरण दिया है. कुछ ऋचाएं भी उन्होंने ढूंढी हैं जो ध्रुवीय या आस पास के प्रदेश का ही विवरण देती हैं. वहीं से किसी दैवी आफत के कारण पलायन हुआ और एक काफिला भारत में हिन्दुकुश से प्रवेश कर गया.

एक और सिद्धांत प्रतिपादित है, कि आर्य मध्य एशिया से आये थे. यह अधिक मान्यता प्राप्त सिद्धांत है। मध्य एशिया से काफिले चले और तीन भागों में बंट गए. एक शाखा पश्चिम की और, कैस्पियन सागर के दक्षिण से होते हुए, यूराल पर्वत श्रृंखला को पार करती हुयी यूरोप चली गयी. जर्मनी खुद को उन्ही आर्यों की संतान मानता है. हिटलर को खुद को आर्य मानने का बड़ा गर्व था. धीरे धीरे यही शाखा यूरोपियन आर्यों की जननी बनी. भाषा वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करते है. और इन भाषाओं के कुल का नाम भी भारोपीय भाषा परिवार हैं.

एक शाखा जो दक्षिण की और मध्य एशिया से चली वह दो भागों में बंट गयी.एक भाग फारस , जो अब ईरान के नाम जाना जाता है, की और चली गयी. वहाँ भी आर्यों का साम्राज्य  स्थापित हुआ .ईरान का सम्राट, शाह रज़ा पहलवी , 1979  के अयातोल्लाह खुमैनी के इस्लामी आंदोलन होने तक, स्वयं को आर्य मिहिर कहता था. उसके सिंहासन के पीछे सूर्य का प्रतीक चिह्न रहता था. वेदों के समान ईरानी आर्यों ने भी एक ग्रन्थ रचा था, जिसका नाम था अवेस्ता।  उनके पूर्व पुरुष हुए ज़रथुश्त्र. और अग्नि उनके मुख्य देवता थे।  यह अग्नि पूजकों की शाखा थी। मंदिरों के स्थान पर उन्होंने अग्नि कुण्ड की स्थापना की. जहां अग्नि निरंतर जलती रहती थी. इनके धर्म के मानने वालॉ को पारसी कहा जाता था।  आज भी पारसियों के मंदिर को अगियारी मंदिर कहा जाता है. इनकी भाषा को फारसी कहा गया. फारसी संस्कृत से बहुत ही मिलती जुलती है . लगभग 80 प्रतिशत शब्द दोनों भाषाओं में एक समान हैं.

तीसरी शाखा जो दक्षिण पूर्व की और घूमी और हिन्दुकुश पर्वत को पार कर, सिंधु सभ्यता के क्षेत्र मुअन जो दड़ो, और हड़प्पा को समेटते हुए, सरसवती के किनारे स्थापित हुयी.  अब मूल बात पर पर आते हैं. आर्यों में समय के साथ साथ वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विकसित हुयी फिर वर्णों के काम काज के ढंग पर कालान्तर में वर्ण जाति में रूढ़ हो गए. आर्यों में द्विज और शूद्र का भेद शुरू हो गया था। प्रथम तीन वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज कहलाये और शूद्र अलग रहे. एक धारणा यह  कहती है कि जो भारत के मूल निवासी थे, वह शूद्र कहलाये. उन्हें आगत आर्यों ने दास बना लिया. उन्ही में से अन्त्यज, श्वपच और अन्य अस्पृश्य जातियां बनी. लेकिन किसी भी समाज को गतिशील बनाने में आर्थिक पक्ष की भी भूमिका कम नहीं होती है. मूलतः कृषि और पशु पालन पर आधारित आर्यों की जीवन शैली ने शूद्रो का भरपूर उपयोग किया और खेती किसानी से जुडी अनेक जातियां बनी. लेकिन वर्चस्व ब्राह्मण और क्षत्रियों का ही बना रहा.

श्री माँझी के कथन को अत्यंत दुर्भावना और जातिगत पूर्वाग्रह से देखा जा रहा है. मांझी ने जो कहा है वह पूर्णतः इतिहास सम्मत है. पूरा इतिहास आर्यों को विदेशी मानता है. हालांकि एक मत यह भी है कि आर्य यहीं के थे, और यहीं से बाहर गए. पर भारत की सम्पन्नता, प्रकृति  प्रदत्त अद्भुत समृद्धि से यह तर्क गले नहीं उतरता है कि आर्य यहां से बाहर गए होंगे. पलायन का मुख्य कारण युद्ध, साम्राज्य विस्तार, या जीवन यापन के साधनों की खोज ही रही है. भारत से बाहर निकल कर साम्राज्य विस्तार के उदाहरण तो हैं पर वहाँ जा कर बसने के नहीं है. इस तरह आर्य विदेशी ही ठहरते हैं. द्विज जो सवर्ण हुए वे स्वतः विदेशी हो जाते हैं. अगर ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में मांझी के कथन का विश्लेषण आप करेंगे तो उनके कथन से सहमत ही होंगे.

सनातन धर्म के चार वर्णों में शूद्र भी एक वर्ण है. जो सेवा, दास वृत्ति हेतु है. जैसे जैसे राज्य बनते गए. उनके विस्तार के लिए युद्ध भी हुए. फिर इन युद्धों से बड़े राज्य और विस्तारवाद की भावना ने साम्राज्य का स्वरुप निर्धारित किया. इस से कालान्तर में सामंतवाद का विकास हुआ। सामंतवाद के साथ साथ वर्ण व्यवस्था में स्पष्ट विभाजन होने लगा. तीनों वर्ण जो द्विज की मान्यता प्राप्त थे एक तरफ हो गए और दासों का वर्ण शूद्र एक तरफ हो गया. जो समय के साथ साथ दला जाता रहा, वह दलित हो गया. जिसे आंबेडकर डिप्रेसेड क्लास कहते थे. उन्हें हिन्दू तो माना जाता था पर किसी भी धार्मिक कर्मकाण्ड में शामिल होने का उन्हें अधिकार इस धर्म ने नहीं दिया था. स्थानीय स्तर पर कुछ अग्रगामी सोच के सामंतों ने ज़रूर उनकी दुर्दशा को लक्ष्य कर कुछ सुधारवादी कार्यक्रम चलाये, पर धर्म के कथित कथित ठेकेदारों ने उन्हें धर्म के कर्मकांडी स्वरुप के साथ जोड़ने के लिए कोई भी साझा कार्यक्रम नहीं चलाया. यह तो इस धर्म की उदारता और सब कुछ समेट कर चलने की परम्परा और समय समय पर होने वाले सुधारवादी आंदोलन थे, जिस ने इन जातियों के एक बहुत बड़े वर्ग को धर्म परिवर्तन करने से रोक लिया, जब कि क्षत्रियों में व्यापक धर्म परिवर्तन हुआ।  इसका कारण भी सामंतवाद और आर्थिक ही था। साथ ही धर्म की कट्टरता के कारण भी जो छोड़ कर इस्लाम ग्रहण कर गया वह वापस सनातन धर्म में नहीं आ पाया।  छोड़ कर नहीं गया. बस धर्म के स्वरुप को इसने खुद ही बदल लिया. आप भक्ति आंदोलन से इसे प्रमाणित होते देख सकते हैं.

विंध्याचल के दक्षिण में एक और संस्कृति थी. द्रविड़ संस्कृति. आर्यों का इस संस्कृति से संघर्ष और मेल जोल  हुआ. अगस्त्य ऋषि के विंध्याचल पार कर के जाने और विंध्याचल को झुके रहने का आशीर्वाद देने की कथा बहुत प्रचलित. आर्य का यह प्रथम दक्षिण विस्तार था.  एक धारणा के अनुसार राम का रावण से युद्ध भी आर्य और द्राविड़ संस्कृति का एक संघर्ष है।  यह धारणा द्रविड़ साहित्य से निकली है।  लेकिन इसी आर्य विस्तार और वर्चस्व के खिलाफ पिछली सदी के पूर्वार्ध में 1920 के आस पास द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत हुयी. रामास्वामी नायकर पेरियार इस आंदोलन के शिखर नेता थे. वह दक्षिण भारत के अत्यंत लोकप्रिय धर्म सुधारक थे. द्रविड़ कड़गम की स्थापना उन्होंने की. जो बाद में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनी. जिसका अन्ना दुरई की मृत्यु के बाद, अन्ना डी एम के के रूप में एक और विभाजन हुआ. दक्षिण में अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव बहुत था. वहाँ के समाज में ब्राह्मणवाद और गैर ब्राह्मण वाद का संघर्ष भी बहुत गंभीर रहा. इस विवाद का असर भाषा आंदोलन पर भी बड़ा। पहले स्वतंत्र द्रविडिस्तान की पृथकतावादी मांग भी उठ चुकी है। 
  
जो बात मांझी ने कही है, अगर वही बात किसी सवर्ण मुख्य मंत्री ने कही होती तो बिलकुल विवाद नहीं होता. जातिवाद का विरोध कुछ सवर्णों  ने भी कम नहीं किया है. बल्कि बहुत किया है. सामाजिक कुप्रथा के विरुद्ध ब्राह्मणों ने भी आवाज़ उठायी है. और ऐसे आन्दोलनों का नेतृत्व भी किया है. लेकिन जब दलित समाज में जागृति फैलने लगी. और जब उन्होंने अपने आंदोलन को खुद ही संचालित करने का उपक्रम किया तो उसका व्यापक विरोध भी सवर्ण समाज ने शुरू कर दिया. ऐसा सिर्फ इस लिए कि यह समाज अपनी मानसिकता समय के सापेक्ष बदल नहीं पा रहा है. भग्न हो चुके सामंतवाद के खँडहर आज भी ज़िंदा है. विडम्बना यह भी है कि खंडहरों का नाश मुश्किल से ही होता है.

बिहार मूलतः सामंती मानसिकता का प्रांत है.  भूमि सुधार कार्यक्रम वहाँ देर से लागू किया गया. जातिगत, और उपजातिगत मानसिकता वहाँ बहुत गहरे पैठी है. शिक्षा का प्रसार भी कम नहीं है और सामाजिक गैर बराबरी के खिलाफ वहाँ आवाज़ें भी खूब उठीं. फिर भी सवर्ण और गैर सवर्ण की मानसिकता वहाँ आज भी कम नहीं है. मांझी जिस समाज से आते हैं. वह अति दलित समाज है. उस समाज में शिक्षा का स्तर भी कम है. राजनैतिक दबाव ग्रुप भी जैसा लालू यादव के यादव समाज या नितीश कुमार के कुर्मी समाज में है वैसा मांझी के समाज में नहीं है. इस लिए वह अगर कुछ तार्किक कहते हैं तो भी उस पर विवाद होता है.  और लोग उसे उपहास के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं. पर जिस परिवेश में वक्तव्य से अधिक वक्ता की सामाजिक हैसियत मायने रखती है, वहाँ ऐसा विवाद होगा ही.

-विजय शंकर सिंह.


Saturday 15 November 2014

Ek Nazm .... Talaash / एक नज़्म . ....तलाश

दोस्तों यह नज़्म पढ़ें . हम सब तलाश ए मंज़िल और एक सफ़र में है . जीवन से मृत्यु तक यह यात्रा हर्ष , विषाद , सौभाग्य दुर्भाग्य आदि न जाने कितने पड़ाव पार करती हुयी गुज़रती है . असीम और अनंत तक फ़ैली इस आकाश गंगा में अपना लक्ष्य ढूंढती यह नज़्म शायद आप को पसंद आये .



सितारों से भरे
इस आसमान की वुसवतों में ,
मुझे अपना सितारा
ढूंढना है !

फलक पर कहकशां दर कहकशां
एक बे'करानी है .
उसका नाम है मालूम ,
कोई निशानी है !

बस , इतना याद है कि ,
अज़ल की सुबह , जब सारे सितारे ,
अलविदाई गुफ्तगू करते हुए ,
रास्तों पर निकले थे ,

तो उस की आँख में ,
एक और तारा झिलमिलाया था
उसी तारे की सूरत का ,
मेरी भींगी हुयी आँखों में भी ,
एक ख्वाब रहता है .
.
मैं अपने आंसुओं में ,
अपने ख़्वाबों को सजाता हूँ ,
और उस की राह तकता हूँ  !

सुना है गुमशुदा चीजें ,
जहां पर खोती हैं ,
वहीं से मिल भी जाती हैं !!

Ek nazm...

Sitaaron se bharay,
Is aasmaan ki wus'aton mein,
Mujhey apnaa sitaaraa
dhoondhnaa hai.

Falak par kehakashan dar kehakashan
ek be'karaani hai,
Na us kaa naam hai maloom,
Na koi nishaanee hai.

Bas itnaa yaad hai mujh ko,
azal kee subah, jab saarey sitaarey,
Alwidaai guftagu kartey huye,
Raaston pey nik'ley the.

To us ki aankh mein,
Ek aur taaraa jhil'milaayaa thaa,
Usi taarey kee soorat kaa,
Meri bheengi huyee aankhon mein bhee,
Ek khwaab rahataa hai.

Main apney aansuon mein
apne khwaabon ko sajaataa hoon.
Aur us'kee raah tak'taa hoon.
Sunaa hai gum'shudaa cheezen,
jahaan par kho jaatee hain,
wahin sey mil bhee jaatee hain.
 -vss.



Friday 14 November 2014

Nehru 125 th Birth Anniversary / जवाहर लाल नेहरु (1889 - 1964 ), की 125 वीं जयन्ती / विजय शंकर सिंह.



 नहर के किनारे रहने के कारण नेहरू नाम पड़ा। पर मूलतः यह कश्मीर के कौल ब्राह्मण थे। 1857 के विप्लव के बाद यह परिवार आगरा जा बसा। दिल्ली में उनके पुरखे पंडित राज कौल मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर के कहने पर  आये थे , जिन्हे मुग़ल बादशाह ने जागीर दी थी। इन्ही के वंशज लक्ष्मी नारायण नेहरू मुग़ल बादशाह के पहले वकील नियुक्त हुए। उनके बेटे गंगाधर नेहरू दिल्ली के कोतवाल नियुक्त हुए जो विप्लव के पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। आगरा में जब गंगाधर थे तभी मोती लाल नेहरू का जन्म हुआ। मोतीलाल के एक बड़े भाई ,  नन्द लाल जो आगरा न्यायालय में वकील थे, उस न्यायालय के इलाहाबाद स्थानांतरित होने के इलाहाबाद आ गए।  जहा 14 नवम्बर 1889 को जवाहर लाल नेहरू का जन्म हुआ। जिनकी आज 125 वीं जयंती मनाई जा रही है। 


नेहरू बड़े विचारक थे। वे उन चुनींदा राजनेताओं में हैं जिन्होंने खूब लिखाराजनीति से इतर भी। उनकी पुस्तकें "भारत एक खोज" और "Glimpses of world history" उनके अध्ययन के विस्तार को प्रदर्शित करती हैं। कांग्रेस की अगली पंक्ति के नेताओं में अकेले नेहरू थे जिनकी स्वतंत्रता के काफी पहले से ही विदेश नीति पर गहरी पकड़ थी। स्वतन्त्र भारत के किसी भी प्रधानमंत्री को विश्व पटल पर वह सम्मान नहीं मिला जो नेहरू को प्राप्त था। आजादी के बाद नेहरू ने पुराने मतभेद भुलाते हुए देशहित में अनेक विरोधी पक्ष के विद्वानों को सरकार में शामिल किया। इनमें डॉ. आंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी शामिल थे। आजादी के बाद देश को तेज गति से औद्योगीकरण की आवश्यकता थी। तब देश का निजी क्षेत्र इस अवस्था में नहीं था कि अकेले अपने हाथों यह कार्य कर सके। इसलिए नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े उपक्रमों की स्थापना की। भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे अनेक बड़े कारखाने उन्हीं की देन हैं। नेहरू भारत के उँगलियों पर गिने जा सकने वाले उन नेताओं में शीर्ष पर हैं जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सर्वोच्च माना करते थे। वे नास्तिक थे। इस विषय पर गांधीजी के धार्मिक आग्रहों से उनकी सार्वजनिक असहमति थी। नेहरू का समाजवाद के प्रति झुकाव था। लेकिन उन्होंने समय की मांग के अनुरूप मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुना। यह भारत के तत्कालीन वातावरण के अनुकूल नीति थी। आज बड़े बांधों की इस देश को आवश्यकता है या नहीं है यह विमर्श का बड़ा मुद्दा है। लेकिन आजादी के बाद सिंचाई के विस्तार के उद्देश्य से भाखड़ा नांगल और हीराकुंड जैसे अनेक बड़ी परियोजनाएं उनकी देन हैं। आजादी और बंटवारे के बाद भारत सहित पाकिस्तान में साम्प्रदायिक घृणा का माहौल था। ऐसे में भारत में सत्ता नेहरू के हाथ में रही जिन्हें साम्प्रदायिकता से सख्त चिढ़ थी। यदि किसी धर्म विशेष की और झुकाव वाला कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाता तब उस माहौल में भारत के अनेक टुकड़े हो सकते थे। लेकिन नेहरू के नेतृत्व में भारत का पूरा ध्यान विकास और निर्माण पर लगा रहा। जबकि पकिस्तान जन्म के बाद से लेकर आज तक स्थायित्व का एक भी दौर नहीं देख पाया है और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। 



इस अवसर पर अनेक समारोह मनाये जा रहे हैं। जिसमें से एक समारोह कांग्रेस द्वारा भी मनाया जा रहा है, जिसमें प्रधान मंत्री मोदी जी को आमंत्रित न करने का कांग्रेस का जो निर्णय लिया गया है , उचित  नहीं है. यह निर्णय कांग्रेस के बचकानेपन पर को ही ज़ाहिर करता है.

आज की कांग्रेसजो 1885 ईस्वी में गठित की गयी थीवह, 1907, 1924, 1937, 1969 में विभिन्न शाखाओं में बंटते हुए 1969 की इंदिरा कांग्रेस ही है. दलों में विभाजन और मत वैभिन्नय अत्यंत सामान्य प्रक्रिया है. यह दल और विचार की समृद्धि को ही बताते हैं. गोखले और तिलकगांधी और जिन्नानेहरू और सुभाषये सभी सैद्धांतिक रूप से अलग अलग रहे हैं. जिन्ना का तो रास्ता ही एक समय में देश के विभाजन की पीठिका बनी. लेकिन इनका देश के आज़ादी के लक्ष्य के प्रति कोई आपसी विरोध नहीं था. इनके आपसी सम्बन्ध भी मधुर रहे है. कोई भी व्यक्तिगत आक्षेप इन नेताओं ने अपने राजनीतिक विरोधियों के ऊपर नहीं लगाए.


सुभाष ने जब आई एन ए का गठन किया तो जो पहली ब्रिगेड खड़ी हुयीवह गांधी ब्रिगेड थी. उन्होंने ही गांधी को राष्ट्र पिता का सजम्बोधन दिया.जिन्ना जब पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुख बने तो उन्होंने एक भारतीय नेता जो बीमार जिन्ना से मिलने गए थे से कहा था किजवाहर लाल से कहना मेरा मन ऊबेगा तो बम्बई में आ कर अपने घर में रहूँगा. खुद नेहरू ने अटल बिहारी बाजपेयी के पहले भाषण को जो उन्होंने अपने प्रथम संसदीय जीवन के दिया थाको सुनने के बादअटल जी को बधाई देते हुए कहा थायह शख्स एक दिन देश का प्रधान मंत्री बनेगा. नेहरू की भविष्यवाणी समय के साथ सच साबित हुयी. सैद्धांतिक मतभेदों के बावज़ूद महान लोगों में कभी आपसी वैमनस्य नहीं रहा.



सत्याग्रहहड़तालसिविल नाफरमानी याचिका गोष्ठियां आदि रास्ते थेजिनको भिन्न भिन्न स्वतन्त्रता सेनानियों द्वारा अपने अपने तरीके से आज़ादी के लिए समय समय पर अपनाया जाता रहा है. इसी के साथ कुछ उत्साही युवकों द्वारा सशत्र संघर्ष का मार्ग भी अपनाया गया था. भगत सिंहचंद्रशेखर आज़ादजैसे महान क्रांतिकारियों कीविचारधारा थीजो कांग्रेस और गांधी की विचार धारा के बिलकुल उलट थी. लेकिन देश के प्रति उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता. साध्य देश की आज़ादी थी और साधन सबके अलग अलग थे. क्रांतिकारी आंदोलन इतना गोपनीय था कि किसी को भी इनकी गतिविधियों का पता ही नहीं चल पाता था. प्रचार और अखबारों से तो कोई मतलब ही नहीं था. इसी लिए इस आंदोलन का कोई भी प्रमाणिक इतिहास नहीं लिखा जा सका है. ये नीवं के पत्थर थे.


देश की विरासतसभी महान नेताओं का योगदान देश की साझी थाती हैऔर इसे बाँट कर नहीं देखा जाना चाहिए. 1857 के विप्लव का नेतृत्व बहादुर शाह ज़फर को सौंपा गया था. जैसे वे नाम मात्र के मुग़ल बादशाह थेवैसे ही वेइस विप्लव के भी नायक बने. असली लड़ाई नाना साहब बेगम हजरत महल रानी लक्ष्मी बाईबाबू कुंवर सिंह मंगल पांडे आदि महान नायकों द्वारा लड़ी गयी थी. लेकिन सदारत बहादुर शाह ज़फर की ही मानी गयी. उन्हें जलावतनी झेलनी पडी उनके बेटों को फांसी दे दी गयी. उनकी मृत्यु भी कारागार में ही रंगून में हुयी. अटल जी जब 1977 में विदेश मंत्री बने थे तो अपनी रंगून यात्रा में वह ज़फर के मज़ार पर गए थे. और इस दिवंगत नायक के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया था.


नेहरू की आलोचना भी कम नहीं हुयी है। सोशल साइट्स पर नेहरु के विरोधियों के पासऐसा लगता हैसिवाय उनकी कुछ महिलाओं के साथ ली गयी तस्वीरों के कुछ भी कहने को नहीं है. यह नेहरू की चारत्रिक कमी है या उनकी रंगीन मिज़ाजीया उनकी विशाल हृदयता इस पर सब अपने अपने विचार से तर्क रखेंगे और मीमांसा करेंगे. लेकिन उनके विचारों के बारे में उनकी नीतियों के बारे में बहुत कम ही पोस्ट दिखीं. नेहरू दोहरा जीवन नहीं जीते थे. उनके कपडे बांड स्ट्रीट में सिले जाते थेवह एक अभिजात्य जीवन जीते थे. लेकिन जब वे सारे ऐश ओ आराम छोड़ कर स्वतंत्रता संग्राम में कूदे तो उनका अलग ही रूप दिखा. उनकी अंतरंग दोस्ती लेडी माउंट बेटन से थी तो थी. उन्होंने इस दोस्ती को छुपाया नहीं. जैसा उन्हें लगा वैसा जीवन उन्होंने जिया. आज कोई उन्हें जिस भी नज़र से देखेयह देखने वाले की दृष्टि और भावना है. चरित्र को महिलाओं की मित्रता से ही जोड़ कर देखने की प्रवित्ति एक हीन भावना का ही उदाहरण है. मुझे नहीं लगता कि विपरीत लिंग से मित्रता का किसी को परहेज़ होगा. पर दिखावे और पाखण्ड का क्या करें . नेहरू की खूब आलोचना कीजिये. उनके सेक्स जीवन से लेकर उनके आध्यात्मिक रुझान तक बहस करें. बहुत सामग्री मिलेगी आप को. लेकिन आलोचना केवल इन्ही चित्रों तक केंद्रित न रखिये. इस से उनकी आलोचना कम आप की हीन भावना और ईर्ष्या का भी आभास होता है. नेहरू एक अच्छे इंसान थे. इंसानी कमज़ोरियों से जुदा वे भी नहीं थे.    


नेहरू के आलोचक अक्सर यह कहते हैं कि सावरकरश्यामा प्रसाद मुख़र्जी,  गोलवलकर, आदि नेताओं को जान बूझ कर इतिहासकारों ने इग्नोर किया है. इसका कारण वे वामपंथी स्कूल के इतिहासकारों का वर्चस्व होना बताते है .मेरा उनसे अनुरोध है कि इन महानुभावों के बारे में आप को बताने से किसने रोका है अब इनके बारे में जो भी सामग्री हो उसे साझा कीजिये. लोग तो नेहरू और गांधीऔर इंदिरा गांधी तक के निजी संबंधों पर चटखारे ले कर चर्चा करते है. फिर उपरोक्त महानुभावों के बारे में मित्र गण कोई चर्चा ही नहीं करते. यह सामग्री का अभाव है या अध्ययन की अनिच्छाया हीन भावनायह तो वही जानें. लेकिन चाहे सावरकर हों या श्यामा प्रसाद मुख़र्जीदोनों की देश के प्रति निष्ठां पर किसी को संदेह नहीं है. लेकिन उनके बारे में कोई मित्र लिखता भी नहीं है.मित्रों कुछ तो ज्ञान वर्धन करें. ताकि बहस हो. और लोग जानें. 

विचारधारा का अंतर सदैव रहेगा. और सबके योगदान भी अलग अलग तरह से रहते हुए भी रहेंगे. देश और देश के प्रति सम्मान और कुछ बेहतर करने की भावना भी एक ही रहेगी. इस अवसर पर मोदी को न बुला कर देश की सबसे बड़ी पार्टी ने अपने संकीर्ण सोच का ही परिचय दिया है. आज़ादी के इस महानतम नायकों में से एकको जिनके जीवन के नौ साल से भी अधिक समय ब्रिटिश जेलों में बीते हैं को उनके सवा सौवीं जयन्ती पर इस प्रकार राजनैतिक मतभेदों के कारण विवादित नहीं बनाया जाना चाहिए था.

- विजय शंकर सिंह.