Wednesday 3 September 2014

तस्लीमा नसरीन और अभियक्ति की स्वतन्त्रता / विजय शंकर सिंह


यह चित्र बहुतो को व्यथित कर सकता है.और बहुतों को आह्लादित भी. यह चित्र है बांगला देश की लेखिका डॉ तसलीमा नसरीन का. जो पिछले पंद्रह सालों से अपने देश के कट्टरपंथी तत्वों के दबाव के कारण निर्वासन का दंश झेल रही है. ऐसा दंश झेलने वाली वह अकेली नहीं है. कुछ और लेखक और विचारक भी इस प्रकार का दंड भोग चुके और भोग रहे हैं. उन्ही में एक नाम सलमान रश्दी का भी है. तसलीमा को सरकार ने एक साल के लिए भारत में रहने की अनुमति दी है. तसलीमा निश्चित रूप से इस कदम से खुश हैं. हो सकता है सरकार उन्हें आगे और रहने की अनुमति दे दे.

तसलीमा मूलतः जिला मेमन सिंह, बांगला देश की रहने वाली है. उनके पिता एक डॉक्टर थे. माता एक सामान्य गृहणी. बचपन से ही तर्क शील और बुद्धि वादी स्वभाव का होने और लड़की होने के कारण इन्हें बहुत ही संताप झेलना पड़ा. इनकी आत्म कथा, जो लगभग छह भागों में है के पढने से समाज और धर्म की विकृति का स्पष्ट पता चलता है. ईश्वर या अल्लाह जैसे किसी संबल पर इनका विश्वास नहीं रहा. धर्म के हर पहलू पर इन्होने तर्क किया और अपने संदेहों को कभी छुपाया नहीं. परिणामतः इन्हें कट्टर पंथियों से तो भिड़ना ही पडा, पहली भिडंत इनकी अपने घर में ही हुयी. लेकिन जिस मिटटी की यह बनी हैं वह आसानी से टूटने वाली नहीं है.

वह प्रसिद्ध हुईं या यों कह लें कि विवादित हुईं लज्जा उपन्यास से. धर्म के नाम पर देश बंटा था, पर पाकिस्तान खुद दो भौगोलिक टुकडो में था. एक पश्चिमी पाकिस्तान दूसरा पूर्वी. सबसे पहले भाषा, संस्कृति आड़े आयी. बांगला भाषा पर जब उर्दू थोपी गयी तो विरोध हुआ. वह विरोध इतना मुखर हो गया कि सशस्त्र संघर्ष जो शेख मुजीब उर रहमान के नेतृत्व में हुआ, वह भारत के सहयोग से निर्णायक साबित हुआ. और एक स्वतंत्र बांगला देश का उदय हुआ. लेकिन वहाँ भी सब कुछ ठीक ठाक नहीं चला. शेख साहब की हत्या हुयी, सेना ने सत्ता संभाल ली और कट्टरपंथी ताकतें फिर हावी हो गयीं. बंटवारे के बाद पकिस्तान के पूर्वी हिस्से में हिन्दू बहुत थे. कुछ जिले तो हिन्दू बहुसंख्यक भी थे. जैसे पश्चिमी पाक के हिस्सों से पलायन हुआ था, वैसा ही पलायन पूर्वी हिस्से से भी हुआ. लेकिन पंजाब और सिंध ने विस्थापन के दर्द को बहुत साहस के साथ सहा और वह धूल झाड कर खड़े ही नहीं बल्कि उन्होंने समाज में अपना एक विशेष स्थान भी बना लिया. पर दुर्भाग्य से पूर्वी पाक से आये लोग ऐसा नहीं कर सके. इसका एक बड़ा कारण यह था, कि पश्चिमी भाग के लोग हज़ारों साल से आक्रमण झेलते, उजड़ते बसते ऐसी संस्याओं से निपटने की मानसिकता विक्सित कर चुके थे. पर पूर्वी भाग में कोई भी विदेशी आक्रमण कभी नहीं हुआ था. और उन्हें जब ऐसे विस्थापन की चुनौती मिली तो एक प्रकार की किंकरवयविमूढ़ता की स्थिति आ गयी. लेकिन इतने विस्थापन के बाद भी काफी संख्या में हिन्दू वहाँ शेष रह गए थे.


लज्जा, ऐसे ही एक हिन्दू परिवार की कहानी है. जिसने अपनी ज़मीन, घर, पोखर, छोड़ कर शरणार्थी बनाना स्वीकार नहीं किया. लेकिन उसके साथ जो हुआ वह बहुत ही दुखद हुआ. धर्म कभी कभी मनुष्य को इतना नीचे गिरा देता है कि शायद जानवरों को हंसने की क्षमता होती तो सड़क पर चलने वाले पशु भी हमारा मजाक उड़ाया करते. स्कूल में इस परिवार के एक बच्चे को कुछ मुस्लिम बच्चे मांस का कवाब जिसका मांस उस बच्चे के परिवार में निषिद्ध था, खिलाने की बात करते है. बच्चे सभी बच्चे हैं. चाहे वे किसी भी धर्म के हों, पर जो वातावरण, वहाँ था वह बेहद कट्टर था. आखिर बच्चों में यह संस्कार जिसे मैं ज़हर ही कहूँगा आया कहाँ से ? निश्चित रूप से बड़ों से ही आया होगा. धर्मों की पुस्तकें पढ़िए तो प्रेरक उद्धरणों के सामान ऐसी सूक्तियां सभी धर्मों में मिल जायेंगी जिस से लगेगा कि धर्म ने तो सारा कलुष धो दिया है. पर वस्तुतः वह कलुष और गहरा ही हो जाता है. अंततः वह परिवार जिसने बंटवारे के समय भी अपना देश नहीं छोड़ा था, वह ऊब कर व्यथित मन से कोलकाता आ गया. लज्जा बांगला के अनेक कालजयी उपन्यासों की तुलना में कुछ भी नहीं है. लेकिन तसलीमा ने जिस बेबाकी से बात कही है वही इस उपन्यास की विशिष्टता है.

लज्जा के बाद तो जो बवाल मचना था, वह मचा ही. भारत में भी और बांगला देश में भी. यहाँ उसे हांथों हाँथ लिया भाजपा के मित्रों ने.और वहाँ कट्टरपंथियों ने. दोनों के ही हित सधते थे. सेकुलर मित्र इस लिए मौन रहे कि वह अपनी राजनीति बचाएं या विवाद में कूदें. लेखको के संगठन ने इस मामले को अभिव्यक्ति की स्वतत्रता से जोड़ कर देखा और आवाज़ उठायी. तसलीमा को देश छोड़ना पड़ा. वह कुछ दिन कोल्कता में तो फिर दिल्ली में फिर कहीं और गुमनामी में रही. कितना कमज़ोर होती है आस्था धर्म और ईश्वर की दीवारे ! जो एक उपन्यास से दरकने लगी. लेकिन तसलीमा ने लिखना नहीं छोड़ा. उनके आत्मकथा की सीरीज धीरे धीरे आयी. उस सीरीज ने समाज में महिलाओं की दुर्दशा, समाज की यौन विकृति, और पाखण्ड को उधेड़ कर रख दिया. तसलीमा का देश छूट गया. वह यूरोप और अमेरिका के दौरे पर निकल गयी. लेकिन, उडि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर. वह फिर कोलकता आयीं. इस बीच ढाका में मुक़दमा भी चला. ऐसा भी नहीं कि बांगला देश में सब उनके विरोधी ही थे. उनको साथ भी मिला. वहाँ के कुछ साहित्यकारों ने उनका साथ भी दिया. अदालत ने भी उनकी बात सुनी. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या हमेशा कम होती है. उन्हें अपनी हत्या का भय था. उन पर हमले भी हुए. वह फिर देश छोड़ भारत आ गयीं.


भारत में भी कट्टरपंथी मुस्लिम ताक़तें उनके विरोध में थी. उनका तर्क था, कि तसलीमा ने धर्म के विरुद्ध लिखा है. तसलीमा के मन में धर्म के कुछ विन्दुओं को लेकर संदेह थे. वह संदेह जो उन्हें बचपन से था, को, उन्होंने सबसे पहले अपनी माँ से साझा किये. उनकी माता जो बहुत पढी लिखी नहीं थी, उन संदेहों का कोई युक्तियुक्त उत्तर नहीं दे पायीं तो दोनों में टकराव भी हुआ. दरअसल तसलीमा एक विद्रोही व्यक्तित्व की है. वह व्यक्तित्व उन पर आज तक हावी है. वह धर्म को मानती हैं या नहीं मानती हैं यह तो वह जाने. पर धर्म उन्हें नहीं सताता हीबरहा. खुद भारत में भी बंगलौर में एक विधायक ने उन पर हमला किया. इसका प्रबल विरोध भी हुआ. तसलीमा के विचार से हम सहमत हों या न हों, पर अभिव्यक्ति की आज़ादी उन्हें भी है. संसार में जीने का अधिकार भी उनका है.

भारतीय धर्मों में ईश्वर का विरोध खूब हुआ है. महावीर और बुद्ध दोनों ही निरीश्वरवादी धर्म हैं. तर्क और बुद्धि पर चलते है. यह अलग बात है कि बुद्ध को सनातन धर्म ने अवतार घोषित कर दिया है. चार्वाक का दर्शन था. जो सामने हैं वही मानता था. सनातन धर्म के दर्शन तो हैं ही. मेरे कहने का आशय यह है कि मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना में एक मूड़ी तसलीमा की भी है. उनके उपन्यासों , आत्म कथाओं के कथा वस्तु और तथ्यों पर अगर किसी को आपत्ति है तो, वह लिख कर भी इसका प्रतिवाद कर सकता है. शारीरिक बल प्रयोग तो पशुता है.

विजय शंकर सिंह

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