Sunday 27 July 2014

सिविल सेवाओं की परीक्षा और भारतीय भाषाएँ............. विजय शंकर सिंह

1977 में जब कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के बाद जनता पार्टी का शासन आया तो, विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बने थे. अटल जी देश के उन गिने चुने नेताओं में से हैं जो प्रखर वक्ता भी है. उनकी एक सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में जो भाषण दिया था वह हिंदी में था. हिंदी भाषी होने के नाते और एक भारतीय होने के नाते दुनिया के सारे रहनुमाओं के बीच हिंदी में अपने विदेश मंत्री को सुनना बहुत सुखद क्षण था. वक़्त पलटा और अटल जी देश के प्रधान मंत्री बने और 6 साल वह देश के प्रधान मंत्री रहे. 

उसी के कुछ समय के बाद सिविल सर्विसेस की परीक्षा के लिए कोठारी कमीशन की रिपोर्ट आयी. हम सब उस समय इम्तेहान की तैयारी में जुटे थे. तभी इम्तेहान का पैटर्न भी बदला और सबसे क्रांतिकारी बदलाव परीक्षा के माध्यम के बारे में हुआ. भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया. मैं बहुत खुश हुआ क्यों कि मेरी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं थी जितनी हिन्दी थी. वह पैटर्न हाल तक बना रहा. प्रीलिम्स परीक्षा की भी शुरुआत तभी हुयी थी. लगा कि देश के उन क्षेत्रों से आने वाले बच्चे सिर्फ अंग्रेज़ी में धाराप्रवाह न होने के कारण, प्रतिभाशील होने के बाद भी चुने जाने से वंचित न रह जाएँ.

लेकिन अंग्रेज़ी दां संस्कृति, मैकाले के मानस पुत्रों की मानसिकता से हम कभी मुक्त भी नहीं हो पाए. और आज भी अगर चमक दमक पूर्ण मॉल या एअरपोर्ट पर अगर अंग्रेज़ी के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में या हिंदी में कुछ पूछा जाय तो कहीं न कहीं उपहास का भाव दिखता है. और कभी कभी यह खुद की भी हीन भावना का प्रदर्शन लगता है. आज जब दिल्ली में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं को स्थान देने और उनके विरुद्ध सौतेला रवैय्या न दिखाने की मांग जब परीक्षार्थियों द्वारा की जा रही है तो इस में बुरा क्या है ? लेकिन उस मानसिकता का क्या कीजियेगा जो आज़ादी के 67 साल बाद भी प्रेत की तरह ज़िंदा है. इसका तर्पण किया ही नहीं किया गया.

भारत में परीक्षा आधारित शासन प्रणाली आई सी एस, और आई पी अंग्रेजो की देन है. 1858 में जब हम ब्रिटेन के गुलाम हुए तो शासन व्यवस्था को चलाने और इस प्रकार चलाने के लिए ब्रिटेन के प्रति वफादारी लगातार बनी रहे यह परीक्षा प्रणाली शुरू की गयी. आई सी एस एक्ट 1861 के अंतर्गत यह प्रतियिगिता परीक्षा शुरू हुयी. प्रथम भारतीय आई सी एस सत्येन्द्र नाथ टैगोर जो रविन्द्र नाथ टैगोर के बड़े भाई थे वह 1863 में बने. यह भी एक संयोग ही है कि आख़िरी आई सी एस अधिकारी जो सबसे अंत में सेवा न्व्रित्त हुए वह भी बंगाल से ही थे, और वे थे निर्मल कुमार बनर्जी. जब देश आज़ाद हुआ तो सिविल सेवा को लागू रखा जाय या समाप्त किया जाय या बदला जाय. इस विषय पर बहुत विचार विमर्श हुआ, नेहरु और पटेल में इसे लेकर बाद में सहमति बनी. क्यों कि जो कठिन परिस्थितियाँ उस समय देश के सामने थीं उन्हें देखते हुए पूरा का पूरा प्रशासनिक अमला बदलने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता था. अनुभव का कोई विकल्प नहीं होता है. आई सी एस का नाम आई ए एस और आई पी के स्थान पर आई पी एस की परीक्षा शुरू हुयी. विदेश सेवा एक नयी सेवा थी उसका गठन धीरे धीरे किया गया. अधिकारियों के अनुभव का लाभ भी मिला और देश सुदृढ़ ही हुआ. तब से लेकर कोठारी कमीशन की संस्तुतियों तक परीक्षा की कम ओ बेश औप्नेवेशिक प्रणाली ही रही.

कोठारी कमीशन ने जब अपनी संस्तुति भारतीय भाषाओं के माध्यम के पक्ष में दी तो उसका एक उद्देश्य यह भी था धीरे धीरे भारतीय भाषाएँ लोकप्रिय होंगी और क्रमशः अंग्रेज़ी का प्रयोग कम होगा. पर संघ लोक सेवा आयोग के कुछ क़दमों से भारतीय भाषाओं के हित बाधित हुए और अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ा. अब जो सरकार आयी है वह स्वदेशी, भारतीयता और भारतीय भाषाओं की बात करती है, तो इन परीक्षार्थियों को लगा कि शायद परीक्षा पद्धति में ऐसे बदलाव होंगे जिन से भारतीय भाषाओं का महत्व बढेगा. लेकिन जब आश्वासन मिलने के बाद परीक्षा तय प्रोग्राम के अनुसार निर्धारित हो गयी तो आक्रोश का भड़कना स्वाभाविक है. पुलिस को तो निशाने पर आना ही था और वह तो आयेगी. अनियंत्रित भीड़ को तो नमस्कार और शालीन भाषा में तो तितर बितर करने का कोई मन्त्र नहीं बना है अब तक तो, बल प्रयोग हुआ और उसकी प्रतिक्रिया भी हुयी.

देश के वर्तमान प्रधान मंत्री अन्तराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में बोलते हैं, यह अलग बात है कि देश में कभी कभी कहीं कहीं अंग्रेज़ी भी बोल देते हैं. अतः इस परीक्षा के लिए भारतीय भाषाओं का ध्यान उन्हें रखना चाहिए. सरकार ऐसा कर भी रही होगी. अंग्रेज़ी से कोई बैर नहीं है. यह दुनिया में सबसे अधिक बोले जाने वाली भाधा है. आधुनिक ज्ञान विज्ञान का बहुत बड़ा भंडार इस भाषा में है. लेकिन भारतीय भाषाओं की उपेक्षा के प्रश्न पर अंग्रेज़ी को तो नहीं पाला जा सकता है. अब तो भारतीय भाषाओं विशेषकर हिन्दी का भी भंडार बढ़ा ही है.

इस पोस्ट के प्रारम्भ में अटल जी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को महत्व देने और हिंदी में भाषण करने का भी उल्लेख है. ऐसा इस लिए कि जब यह सरकार आरूढ़ हुयी तो सारे काम हिंदी में करने का एक फरमान जारी हुआ. जैसे ही हिंदी में काम काज करने की बात सरकार सोचती है, तमिलनाडु में इसकी प्रतिक्रिया तुरंत होती है. जब कि हिंदी का कोई भी बैर तमिल से हो मुझे नहीं लगता. फिर वर्तमान प्रधान मंत्री जी ने बाहर हिंदी में ही बोलने का निश्चय किया. वे बोले भी. सुषमा जी ने तो संस्कृत में शपथ ही ली है. मेरे कहने का यह आशय है कि वर्तमान सरकार का हिंदी प्रेम सिर्फ दिखावा ही न रहे बल्कि वह भारतीय भाषाओं के उन्नयन में भी सहायक हो. सरकार को इसे गंभीरता और प्राथमिकता से लेना चाहिए.
-vss.

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