Tuesday 29 July 2014

ब्लासफेमी , इस्लाम और इसी से सम्बंधित मौलाना वहीदुद्दीन खान का लेख , ' Blasphemy In Islam '....... विजय शंकर सिंह

सीरिया में एक चौदह वर्षीय बच्चे को सिर्फ इस लिए जान से मार दिया गया कि उसने पैग़म्बर हजरत मोहम्मद के शान के खिलाफ कुछ अपमान जनक टिप्पणी कर दी थी।  इसे ब्लासफेमी या हिंदी में हम ईश निंदा कहते हैं। अंग्रेज़ी शब्द ब्लासफेमी का अनुवाद शब्द कोष ईश्वर को अपमानित करना बताता है। दुनिया के कई मुल्को , अमेरिका और इंग्लॅण्ड जैसे आधुनिक सोच के देशों में भी इस से जुड़े दंडात्मक प्राविधान हैं।  लेकिन इन देशों में ब्लासफेमी के लिए बहुत ही कम मुक़दमे चले हैं और दंड तो और भी कम दिए गए हैं। मुस्लिम देश इस मामले में अधिक संवेदनशील हैं।  वहाँ कानो सुनी बातों पर भी दंड दे दिए जाते हैं। 

ईश निंदा की अवधारणा मूलतः सेमेटिक धर्मों जो पैगंबरवाद पर आधारित हैं , जैसे यहूदी, ईसाई और इस्लाम में है।  भारतीय धर्मों, सनातन या हिन्दू , बौद्ध और जैन में यह प्राविधान नहीं है। बाइबिल में इसे दूसरे रूप में दिखाया गया है। हिब्रू भाषा में ब्लासफेमी का पर्याय शब्द नहीं मिलता है। अंग्रेज़ी शब्द ब्लासफेमी, ग्रीक के शब्द blafhmevw से उद्भूत हुआ है। न्यू टेस्टामेंट में यह शब्द 55 बार प्रयुक्त हुआ है।  दोनों ही टेस्टमेंट्स में इस का भाव ईश्वर को शापित करने या निंदात्मक टिप्पणी करने को ले कर है।   

इस्लाम में ईशनिंदा की अवधारणा दोनों पूर्ववर्ती धर्मों से आया है ब्लासफेमी के लिए अरबी में जो शब्द बताये गए हैं , वे हैं 'सब्ब', यानी अपमान , ' शत्म ' यानी अपशब्द ,  तज्दीफ यानी इनकार , कुफ्र , जिसे अल्लाह पर यक़ीन  न हो , आदि शब्द हैं। क़ुरान में ईश निंदकों के लिए नरक की बात की गयी है।  इस्लाम में ईशनिंदा के कई रूपों में उपहास उड़ाना और उस पर संदेह करना भी है। लेकिन क़ुरान ने इस कृत्य के लिए किसी दैहिक दंड की बात नहीं की है। हालांकि कुछ इस्लामिक न्यायविद हदीस के अनुसार ऐसे कृत्य के लिए मृत्यु दंड की बात करते हैं। हदीस , सुन्नह है, इस्लामिक परम्पराएँ है। जो बाद में समय समय पर जुड़ती रहीं। यह इस्लामिक न्यायशास्त्र का एक महत्वपूर्ण श्रोत भी है। इस्लामिक कानूनों के अनुसार ईश्वर की निंदा तो क्षम्य है , क्यों कि वह क्षमा कर देगा , लेकिन पैगम्बर मुहम्मद की निंदा अक्षम्य और दंडनीय है। क्यों कि जिसकी  जा रही है वह जीवित नहीं है। अतः वह क्षमा भी कैसे करेगा। .

पाकिस्तान के एक  इस्लामी विद्वान जावेद अहमद घमिडी के अनुसार इस्लाम ईश निंदा के दंडात्मक क़ानून का विरोध करता है। जो क़ानून बाद में आये हैं वे मुस्लिम न्यायविदों ने शरिया  में जोड़े हैं। कुछ न्यायविद ऐसे मामलों में दंड जिसमें अर्थदंड से लेकर कोड़े मारना और मृत्यु दंड तक शामिल है का प्राविधान मानते हैं। पर कुछ इसके खिलाफ केवल फतवा को ही उचित मानते हैं। पाकिस्तान में भी यह क़ानून जनरल जिया उल हक़ के शासनकाल में ही लागू किया गया था। वहाँ भी इस क़ानून के खिलाफ दबे स्वर से आवाज़ उठती रही है। 

दुनिया भर के सभी मुस्लिम बहुल इस्लामी देश अपने यहां ईशनिंदा के विरुद्ध दंडात्मक कानूनो का प्राविधान कड़ाई से करते हैं। इन देशों में सैकड़ों लोगों को ईशनिंदा के लिए दण्डित किया गया। हालांकि इन कानूनों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में भी आवाज़ उठायी गयी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ में बहुत से मुस्लिम  देशों ने इस क़ानून को बदलने या दंड कम कर देने से इनकार कर दिया। 

 मैं मौलाना वहीद्दुद्दीन खान जो एक प्रख्यात इस्लामी विद्वान हैं का लेख आप सब से साझा कर रहा हूँ। उन्होंने ईशनिंदा को इस्लामी मान्यता के विपरीत बताया है। पैगम्बर की निंदा दंडनीय नहीं बल्कि उस पर पश्चाताप अपेक्षित है। कृपया ब्लॉग में पूरा लेख पढ़ें। 

Maulana Wahiduddin Khan...

Blasphemy in Islam: The Quran does not prescribe punishment for abusing the Prophet
In Islam, blasphemy is a subject of intellectual discussion rather than a subject of physical punishment. This concept is very clear in the Quran.

The Quran tells us that since ancient times God has sent prophets in succession to every town and every community. It says, moreover, that the contemporaries of all of these prophets adopted a negative attitude towards them.

There are more than 200 verses in the Quran, which reveal that the contemporaries of the prophets repeatedly perpetrated the same act, which is now called 'blasphemy or abuse of the Prophet' or 'using abusive language about the Prophet'. Prophets, down the ages, have been mocked and abused by their contemporaries (36:30); some of the epithets cited in the Quran include "a liar" (40:24), "possessed" (15:6), "a fabricator" (16:101), "a foolish man" (7:66). The Quran mentions these words of abuse used by prophets' contemporaries but nowhere does the Quran prescribe the punishment of lashes, or death, or any other physical punishment.

This clearly shows that 'abuse of the Prophet' is not a subject of punishment, but is rather a subject of peaceful admonishment. That is, one who is guilty of abusing the Prophet should not have corporal punishment meted out to him: he should rather be given sound arguments in order to address his mind. In other words, peaceful persuasion should be used to reform the person concerned rather than trying to punish him.

Those who adopt a negative stance towards the Prophet will be judged by God, who knows the innermost recesses of their hearts. The responsibility of the believers is to observe the policy of avoidance and, wishing well, convey the message of God to them in such a manner that their minds might be properly addressed.

Another important aspect of this matter is that at no point in the Quran is it stated that anyone who uses abusive language about the Prophet should be stopped from doing so, and that in case he continues to do so he should be awarded severe punishment. On the contrary, the Quran commands the believer not to use abusive language directed against opponents: "But do not revile those [beings] whom they invoke instead of God, lest they, in their hostility, revile God and out of ignorance" (6:108).
This verse of the Quran makes it plain that it is not the task of the believers to establish "media watch" offices and hunt for anyone involved in acts of defamation of the Prophet, and then plan for their killing, whatever the cost. On the contrary, the Quran enjoins believers to sedulously refrain from indulging in such acts as may provoke people to retaliate by abusing Islam and the Prophet. This injunction of the Quran makes it clear that this responsibility devolves upon the believers, rather than holding others responsible and demanding that they be punished.

Looked at from this angle, the stance of present-day Muslims goes totally against the teachings of the Quran. Whenever anyone - in their judgment - commits an act of 'abuse of the Prophet', in speech or in writing, they instantly get provoked and respond by leading processions through the streets, which often turn violent. And then they demand that all those who insult the Prophet be beheaded.

Muslims generally advocate the theory that freedom of expression is good, but that no one has the right to hurt the religious sentiments of others. This theory is quite illogical. Freedom is not a self-acquired right. It is God, who, because of His scheme of putting man to the test, has given man total freedom. Then the modern secular concept of freedom is that everyone is free provided he does not inflict physical harm upon others. In such a situation, the above kind of demand is tantamount to abo-lishing two things: firstly, to abolishing the divine scheme, and secondly, to abolishing the modern secular norm. Neither goal is achievable.

So the hue and cry against the so-called abuse of the Prophet is simply untenable. By adopting this policy, Muslims can make themselves permanently negative but they cannot change the system of the world.

There is a relevant Hadith in which the Prophet of Islam has said: ''Min husn Islam al-mar tarkahu ma la yanih'' (A good Muslim is one who refrains from indulging in a practice that is not going to yield any positive result). This Hadith applies very aptly to the present situation of Muslims. They have been making noise for a very long time against blasphemy, but it has been in vain. Muslims must know that they are not in a position to change the world, so they must change themselves. There will be two instant advantages of adopting this policy: they will save themselves from becoming victim of negative sentiments and will be able to devote their energies to constructive work.


(The writer is an Islamic scholar and founder of the Centre for Peace and Spirituality International.)

Sunday 27 July 2014

A poem to say Gd.night...... Vijay Shanker Singh.


The sun has gone,
handed over the empire to the moon,
came with the procession of stars,
the moon is smiling upon you.

The cool breeze,
the chanting voices of the lovely wind,
whispering in your ears.

Close your eyes,
And slip in the amazing world of dreams.
I am with you my friend,
With my love and affection,
Forever !!

-vss. 

इसराइल फिलिस्तीन संघर्ष एक ऐतिहासिक विवेचन.. 3........विजय शंकर सिंह

आप इस्राइल और फिलिस्तीन के आपसी विवाद और संघर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पढ़ रहे हैं. उसी क्रम में यह तीसरा अध्याय है.



द्वीतीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया था. जर्मनी तबाह हो गया था, जापान के दो महानगर हिरोशिमा और नागासाकी विज्ञान के अभिशाप के साक्षी बन विनाश के कीर्तिमान बन चुके थे. अमेरिका सबसे बड़ी वैश्विक शक्ति बन गया था. ब्रिटेन जो समुद्र की लहरों पर शासन करता था और जिसके साम्राज्य में कभी सूरज डूबता नहीं था की दहलीज़ पर ही सूरज डूबने लगा. उसके उपनिवेश आज़ाद होने लगे. इस लिए नहीं कि उसके ह्रदय में स्वतन्त्रता  के लिए ज्वार उमड़ आया था बल्कि इस लिए कि अब उपनिवेश पालना उसके लिए सम्भव नहीं रहा. लीग ऑफ़ नेशंस के स्थान पर संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ. अब इस्राइल और फिलिस्तीन का मामला उसके समक्ष प्रस्तुत हुआ.

द्वीतीय महायुद्ध के बाद फिलिस्तीन के भाग्य को लेकर यहूदियों और अरबों के बीच शत्रुता बहुत बढ़ गयी थी. ब्रिटेन ने अपने फिलिस्तीनी मैंडेट के प्रकरण को यू एन ओ को संदर्भित किया. उसे उम्मीद थी कि उसके प्रभुत्व को यू एन ओ मान्यता दे देगा. क्यों कि यूं एन ओ कोई और समाधान इस जटिल प्रकरण का ढूंढ ही नहीं पायेगा. ऐसी स्थित में फिलिस्तीन के ट्रस्टी शिप के रूप में ब्रिटेन का प्रभुत्व उस हिस्से पर बना रहेगा. यूं एन ने एक समिति का गठन किया और उसे मौके पर जा कर विवाद का हल ढूँढने का दायित्व सौंपा गया. इस दल में अनेक देशों के प्रतिनिधि शामिल थे. दल ने वस्तु स्थिति की जानकारी ली लेकिन सर्वसम्मति से किसी एक समाधान पर पहुँचने पर असमर्थ रही. लेकिन दल की बहुमत की राय यह बनी कि शांतिपूर्ण समाधान के लिए फिलिस्तीन को यहूदी और फिलिस्तीनी अरब हिस्से में बाँट दिया जाय. उन्हें लगा कि इस से इस क्षेत्र में शान्ति आ जायेगी और दोनों ही पक्ष संतुष्ट हो जायेंगे. 1946 के अंत तक 12,69,000 अरब और 6,08,000 यहूदी ब्रिटिश फिलिस्तीन मैंडेट में रहते थे. कुल भूभाग का 7% भाग यहूदियों ने खरीद लिया था जो कुल उपजाऊ भूमि का 20% था. 



29 नवम्बर 1947 को यू एन की जनरल असेंबली ने इस भाग को दो भागों में विभक्त करने के लिए मतदान किया. बंटवारे का जो मसौदा था उसके अनुसार दोनों ही हिस्से में दोनों ही समुदाय के लोगों की बस्तियां पड़ती थी. समुदाय के आधार पर बंटवारा सम्भव ही नहीं था. जो हिस्सा यहूदियों को मिलने वाला था उसमे भी सैकड़ों गाँव फिलिस्तीनी अरबों के पड़ते थे. और जो हिस्सा फिलस्तीन का होता वहाँ भी यहूदियों की आबादी आ रही थी. भूभाग के बंटवारे में 56 % भूभाग फिलिस्तिनो को और 43 % भुभाग यहूदियों को देने का प्रस्ताव था. इन भूभागों में जेरूसलम और बेथेलहम दोनों नगर अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक विशिष्टता के कारण सम्मिलित नहीं थे. वे अलग रखे गए. इसे यू एन ने अपने पास रख अन्तराष्ट्रीय नगर बनाने का यू एन का प्रस्ताव था.

यहूदियों के संगठन ने प्रत्यक्ष रूप से इस योजना से सहमति दिखाई लेकिन फिलिस्तीन की और ज़मीन कब्ज़ा करने की भी योजना वह बनाने लगा. उधर अरब जगत और फिलिस्तीनियों ने इस योजना का विरोध शुरू कर दिया. इसे उन्होंने महाशक्तियों षड्यंत्र और वादा खिलाफी कहा. उनका कहना था कि यू एन ने बहुत अधिक भूमि यहूदियों को आवंटित कर दी है जब कि उनकी जनसँख्या अरबों के तुलना में कम है. उन्होंने इसे ब्रिटेन के षडयंत्र के रूप में देखा जिसके प्रभुत्व के काल में यहूदियों के जत्थे के जत्थे आ कर यहाँ बसे और ज़मीने खरीदीं.

इस योजना से शान्ति तो आयी नहीं बल्कि विवाद और संघर्ष और बढ़ गया. लेकिन यू एन ओ ने यह विभाजन योजना जिसका विवरण ऊपर आ चूका है लागू कर दिया. अरब और फिलिस्तीनियों में तुरंत झडपें और युद्ध शुरू हो गया. अरबों की सेना बिखरी हुयी अप्रशिक्षित और आधुनिक नहीं थी लेकिन संख्या बल उनके पास था. इसके विपरीत यहूदी संख्या में कम होने के बावजूद अधिक रण कुशल और प्रशिक्षित थे. उन्होंने जो भूभाग उन्हें आवंटित था पर पूरा कब्ज़ा जमा लिया और अपने प्रशासनिक नियंत्रण में ले लिया. अप्रैल 1948 में यहूदियों ने अपने को आवंटित भूभाग से अधिक ज़मीन अरबों की भी कुछ सेक्टरों में छीन ली. उनकी आक्रामकता भी बनी रही.



15 मई 1948 को ब्रिटेन ने फिलिस्तीन पर से अपना कब्ज़ा छोड़ दिया और उसे खाली कर दिया. तब यहूदियों ने एक स्वतंत्र सार्वभौम और संप्रभु इस्राइल राज्य की स्थापना की घोषणा कर दी. इस नव घोषित राष्ट्र इस्राइल की सीमा पर मिश्र, सीरिया, इराक, और जॉर्डन थे. इन चारों अर्ब राज्यों ने मिल कर इस्राइल पर हमला कर दिया. उनका नारा था फिलिस्तीन को बचाओ. अरब जगत बिलकुल नहीं चाहता था कि एक नया राज्य यहूदियों का यहाँ बने. वे शुरू से ही इस के विरुद्ध थे. लेबनान ने भी युद्ध छेड़ने की घोषणा की थी पर वह बाद में युद्ध में नहीं उतरा. उपरोक्त चार राज्यों ने ही इस्राइल पर हमला किया. लेकिन इस कठिन वक़्त में इस्राइल की सहायता चेकोस्लोवाकिया ने किया. उसकी मदद से इस्राइल का हौसला बढ़ा और वह विजयी हुआ. यही नहीं उसने और फिलिस्तीनी इलाके भी जीत लिए. अब उसके पास यू एन ओ द्वारा आवंटित भूमि से अधिक भूभाग आ गया था.
1949 में यह युद्ध समाप्त हुआ. युद्ध की समाप्ति पर आर्मिस्टिस समझौता हुआ जिसके अनुसार पूरा भूभाग तीन हिस्सों में बंटा. तीनों अलग अलग राजनैतिक ईकाई बने. जो सीमा रेखा बनी वह आर्मिस्टिस लाइन कहलाई. ग्रीन लाइन भी कहा गया. अब जो भूभाग इस्राइल को मिला वह 77 % था, जब की यू एन ओ ने उसे 43 % आवंटित किया था. जॉर्डन को जेरूसलम का पूर्वी भाग मिला. मिश्र के प्रभाव में गाजा शहर को छोड़ कर उसका बाहरी भूभाग मिला जिसे गाजा पट्टी कहा जाता है. यू एन ओ ने फिलिस्तीन को बांटने की जो मूल योजना बनायी थी वह जस की तस रही. उस पर वह कोई अमल नहीं करा सका. विश्व पंचायत की यह एक विफलता ही कही जायेगी. 



फिलिस्तीनी शरणार्थियों की एक विकट समस्या खडी हो गयी. 1947, 1948, और 1949 में जो युद्ध हुए उनसे 7,00,000 फिलिस्तीनी शरणार्थी अपने घरों से बेघर हो गए. इस संख्या और उन कारणों पर विवाद खड़ा हो गया कि इतने शरणार्थी कहाँ से आये. फिलिस्तीनियों का तर्क था कि ब्रिटेन की शह पर, उसके मैंडेट के काल में जो यहूदी बाहर से आकर बसे उन्होंने इन्हें बेदखल कर दिया. उधर इस्राइल ने अपने अधिकृत बयान में इसे अरब को ही दोषी ठहराया. उसका तर्क था कि अरब राज्यों ने इस्राइल पर जब मिल कर हमला किया तो उनके उकसाने से ये फिलिस्तीनी अपना घर छोड़ आये और अब भटक रहे हैं. हालांकि इस्राइल सरकार के एक गोपनीय दस्तावेज़ में यह कहा गया है कि इस्राइल द्वारा जो यहूदी आन्दोलन या जियोनिस्ट आन्दोलन जो चला उस के कारण 75 % फिलिस्तीनी शरणार्थी बने. इस्राइल ने न केवल सैनिक अभियान चलाया था बल्कि ज़बरदस्त मनोवैज्ञानिक दबाव भी उसने फिलिस्तीनियों पर डाला था जिस से उनमें दहशत फ़ैल गयी थी और वे डर कर घर छोड़ गए. केवल एक महीने जुलाई 1948 में दो शहरों लिड्डा और रामले से जो शरणार्थी आये उनकी संख्या 50,000 थी. अरबों के आदेश पर जो संख्या सामने आयी है वह मात्र 5 % की है. इसके अतिरिक्त दस्तावेज़ बताते हैं कि कई सामूहिक नर संहार की घटनाये भी घटी जो यहूदियों द्वारा की गयी. इस से जो वातावरण फैला उस से लोगों ने घर द्वार छोड़ कर शरणार्थी बन गए. सामूहिक नर संहारों में एक उदाहरण फिलिस्तीनी गाँव दर यासीन का है, जहा दक्षिण पंथी ं यहूदियों के आतंकी संगठन ने 125 फिलिस्तियों की ह्त्या कर दी थी. 
क्रमशः
-vss.



सिविल सेवाओं की परीक्षा और भारतीय भाषाएँ............. विजय शंकर सिंह

1977 में जब कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के बाद जनता पार्टी का शासन आया तो, विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बने थे. अटल जी देश के उन गिने चुने नेताओं में से हैं जो प्रखर वक्ता भी है. उनकी एक सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में जो भाषण दिया था वह हिंदी में था. हिंदी भाषी होने के नाते और एक भारतीय होने के नाते दुनिया के सारे रहनुमाओं के बीच हिंदी में अपने विदेश मंत्री को सुनना बहुत सुखद क्षण था. वक़्त पलटा और अटल जी देश के प्रधान मंत्री बने और 6 साल वह देश के प्रधान मंत्री रहे. 

उसी के कुछ समय के बाद सिविल सर्विसेस की परीक्षा के लिए कोठारी कमीशन की रिपोर्ट आयी. हम सब उस समय इम्तेहान की तैयारी में जुटे थे. तभी इम्तेहान का पैटर्न भी बदला और सबसे क्रांतिकारी बदलाव परीक्षा के माध्यम के बारे में हुआ. भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया. मैं बहुत खुश हुआ क्यों कि मेरी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं थी जितनी हिन्दी थी. वह पैटर्न हाल तक बना रहा. प्रीलिम्स परीक्षा की भी शुरुआत तभी हुयी थी. लगा कि देश के उन क्षेत्रों से आने वाले बच्चे सिर्फ अंग्रेज़ी में धाराप्रवाह न होने के कारण, प्रतिभाशील होने के बाद भी चुने जाने से वंचित न रह जाएँ.

लेकिन अंग्रेज़ी दां संस्कृति, मैकाले के मानस पुत्रों की मानसिकता से हम कभी मुक्त भी नहीं हो पाए. और आज भी अगर चमक दमक पूर्ण मॉल या एअरपोर्ट पर अगर अंग्रेज़ी के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में या हिंदी में कुछ पूछा जाय तो कहीं न कहीं उपहास का भाव दिखता है. और कभी कभी यह खुद की भी हीन भावना का प्रदर्शन लगता है. आज जब दिल्ली में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं को स्थान देने और उनके विरुद्ध सौतेला रवैय्या न दिखाने की मांग जब परीक्षार्थियों द्वारा की जा रही है तो इस में बुरा क्या है ? लेकिन उस मानसिकता का क्या कीजियेगा जो आज़ादी के 67 साल बाद भी प्रेत की तरह ज़िंदा है. इसका तर्पण किया ही नहीं किया गया.

भारत में परीक्षा आधारित शासन प्रणाली आई सी एस, और आई पी अंग्रेजो की देन है. 1858 में जब हम ब्रिटेन के गुलाम हुए तो शासन व्यवस्था को चलाने और इस प्रकार चलाने के लिए ब्रिटेन के प्रति वफादारी लगातार बनी रहे यह परीक्षा प्रणाली शुरू की गयी. आई सी एस एक्ट 1861 के अंतर्गत यह प्रतियिगिता परीक्षा शुरू हुयी. प्रथम भारतीय आई सी एस सत्येन्द्र नाथ टैगोर जो रविन्द्र नाथ टैगोर के बड़े भाई थे वह 1863 में बने. यह भी एक संयोग ही है कि आख़िरी आई सी एस अधिकारी जो सबसे अंत में सेवा न्व्रित्त हुए वह भी बंगाल से ही थे, और वे थे निर्मल कुमार बनर्जी. जब देश आज़ाद हुआ तो सिविल सेवा को लागू रखा जाय या समाप्त किया जाय या बदला जाय. इस विषय पर बहुत विचार विमर्श हुआ, नेहरु और पटेल में इसे लेकर बाद में सहमति बनी. क्यों कि जो कठिन परिस्थितियाँ उस समय देश के सामने थीं उन्हें देखते हुए पूरा का पूरा प्रशासनिक अमला बदलने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता था. अनुभव का कोई विकल्प नहीं होता है. आई सी एस का नाम आई ए एस और आई पी के स्थान पर आई पी एस की परीक्षा शुरू हुयी. विदेश सेवा एक नयी सेवा थी उसका गठन धीरे धीरे किया गया. अधिकारियों के अनुभव का लाभ भी मिला और देश सुदृढ़ ही हुआ. तब से लेकर कोठारी कमीशन की संस्तुतियों तक परीक्षा की कम ओ बेश औप्नेवेशिक प्रणाली ही रही.

कोठारी कमीशन ने जब अपनी संस्तुति भारतीय भाषाओं के माध्यम के पक्ष में दी तो उसका एक उद्देश्य यह भी था धीरे धीरे भारतीय भाषाएँ लोकप्रिय होंगी और क्रमशः अंग्रेज़ी का प्रयोग कम होगा. पर संघ लोक सेवा आयोग के कुछ क़दमों से भारतीय भाषाओं के हित बाधित हुए और अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ा. अब जो सरकार आयी है वह स्वदेशी, भारतीयता और भारतीय भाषाओं की बात करती है, तो इन परीक्षार्थियों को लगा कि शायद परीक्षा पद्धति में ऐसे बदलाव होंगे जिन से भारतीय भाषाओं का महत्व बढेगा. लेकिन जब आश्वासन मिलने के बाद परीक्षा तय प्रोग्राम के अनुसार निर्धारित हो गयी तो आक्रोश का भड़कना स्वाभाविक है. पुलिस को तो निशाने पर आना ही था और वह तो आयेगी. अनियंत्रित भीड़ को तो नमस्कार और शालीन भाषा में तो तितर बितर करने का कोई मन्त्र नहीं बना है अब तक तो, बल प्रयोग हुआ और उसकी प्रतिक्रिया भी हुयी.

देश के वर्तमान प्रधान मंत्री अन्तराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में बोलते हैं, यह अलग बात है कि देश में कभी कभी कहीं कहीं अंग्रेज़ी भी बोल देते हैं. अतः इस परीक्षा के लिए भारतीय भाषाओं का ध्यान उन्हें रखना चाहिए. सरकार ऐसा कर भी रही होगी. अंग्रेज़ी से कोई बैर नहीं है. यह दुनिया में सबसे अधिक बोले जाने वाली भाधा है. आधुनिक ज्ञान विज्ञान का बहुत बड़ा भंडार इस भाषा में है. लेकिन भारतीय भाषाओं की उपेक्षा के प्रश्न पर अंग्रेज़ी को तो नहीं पाला जा सकता है. अब तो भारतीय भाषाओं विशेषकर हिन्दी का भी भंडार बढ़ा ही है.

इस पोस्ट के प्रारम्भ में अटल जी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को महत्व देने और हिंदी में भाषण करने का भी उल्लेख है. ऐसा इस लिए कि जब यह सरकार आरूढ़ हुयी तो सारे काम हिंदी में करने का एक फरमान जारी हुआ. जैसे ही हिंदी में काम काज करने की बात सरकार सोचती है, तमिलनाडु में इसकी प्रतिक्रिया तुरंत होती है. जब कि हिंदी का कोई भी बैर तमिल से हो मुझे नहीं लगता. फिर वर्तमान प्रधान मंत्री जी ने बाहर हिंदी में ही बोलने का निश्चय किया. वे बोले भी. सुषमा जी ने तो संस्कृत में शपथ ही ली है. मेरे कहने का यह आशय है कि वर्तमान सरकार का हिंदी प्रेम सिर्फ दिखावा ही न रहे बल्कि वह भारतीय भाषाओं के उन्नयन में भी सहायक हो. सरकार को इसे गंभीरता और प्राथमिकता से लेना चाहिए.
-vss.

Saturday 26 July 2014

इसराइल फिलिस्तीन संघर्ष एक ऐतिहासिक विवेचन.. 2........विजय शंकर सिंह



उन्नीसवीं सदी के समाप्त होते होते दुनिया भर के अधिकतर देशों में यूरोपीय देशों विशेषकर इंग्लैंड फ्रांस आदि कुछ देशों के उपनिवेश फ़ैल गए थे. भारत पूरी तरह से ब्रिटिश क्राउन के अधीन था. अफ्रीका पूरा का पूरा किसे न किसे गोरी महाशक्ति का उपनिवेश बन चुका था. यही स्थिति मध्य पूर्व के इस रेगिस्तानी भू भाग की भी हुयी.  भारत से इसकी दिशा पश्चिम है लेकिन यूरोप से यह मध्य पूर्व में ही आता है. उस समय जो शब्दावली थी, जैसे सुदूर पूर्व फार ईस्ट में मलेशिया, थाईलैंड कम्बोडिया आदि देश, पूर्व यानी ईस्ट में भारतीय उप महाद्वीप, और मध्य पूर्व यानी मिडिल ईस्ट में अरब के देश आते है. इंग्लैंड की गिद्ध दृष्टि इसी और लगी थी. अब इंग्लैंड का अरब में हस्तक्षेप शुरू हो गया था.

बीसवी सदी के आते आते अरब और फिलिस्तीन के इलाके यूरोपीय विस्तारवादी देशों के राजनैतिक महत्वाकांक्षा की दुरभिसंधि बन चुके थे. तब तक ओटोमन साम्राज्य कमज़ोर पड़ने लगा था. उसके कमज़ोर पड़ने से यूरोपीय ताक़तें यहाँ जड़ जमाने लगी थीं. 1915 - 1916 में जब प्रथम विश्वयुद्ध चल ही रहा था कि मिश्र में, जो पहले से ही ब्रिटेन के प्रभुत्व में था नियुक्त ब्रिटिश हाई कमिश्नर सर हेनरी मक्मोहन ने अरब के हाशमाईट कबीले के सबसे महत्वपूर्ण सरदार और मक्का के गवर्नर हुसैन इब्न अली से गोपनीय रूप से वार्ता शुरू कर दी  मक्का का जो स्थान इस्लाम में है उसे देखते हुए यहाँ के गवर्नर की हैसियत आटोमान साम्राज्य में बहुत महत्वपूर्ण थी. फूट डालो और राज करो या उकसाओ, लड़ाओ फिर छोड़ कर खुद कब्ज़ा कर लो की नीति अंग्रेज़ों की घुट्टी में थी. इसी रणनीति के तहत मक्मोहन ने हुसैन को इस साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने को उकसाया. अँगरेज़ जानते थे कि साम्राज्य की हैसियत इतनी नहीं है कि वह अरबों का कुछ बिगाड़ सके. पीछे से उनका छल बल तो था ही. अंग्रेजों को भी आटोमान साम्राज्य से नाराज़गी थी. नाराज़गी का एक कारण इस साम्राज्य की जर्मनी से निकटता थी. जर्मनी इंग्लैंड का परम्परागत शत्रु तो था ही. उस समय जो प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था उसमे भी जर्मनी ब्रिटेन और फ़्रांस के खिलाफ लड़ रहा था. अंग्रेजों ने अरब के हुसैन इब्न अली को यह आश्वासन दिया कि वह अगर इस विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ देगा तो युद्ध की समाप्ति के बाद वे अरब को आटोमान साम्राज्य से मुक्त करा कर हाशमाईट कबीले का ही एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्ज़ा दिलवाएंगे. जिसके अंतर्गत फिलिस्तीन का भी क्षेत्र शामिल रहेगा. अरबों ने हुसैन के पुत्र फैज़ल और डी एच लारेंस, विश्व विख्यात अंग्रेज़ी फिल्म लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया इसी के चरित्र पर बनी थीके नेत्रित्व में विद्रोह कर दिया. परिणामतः कमज़ोर पड़ता हुआ ओटोमोन साम्राज्य इस विद्रोह को कुचल नहीं पाया और अरब उस साम्राज्य से अलग हो गया. लेकिन वह स्वतंत्र नहीं हुआ. ब्रिटिश प्रभुत्व उस पर बरकरार रहा. ब्रिटेन ने अरब का बहुत सा भू भाग अपने कब्ज़े में कर लिया.

ब्रिटेन ने सर मक्मोहन के माध्यम से जो वादा अरबों से किया था, कि फिकिस्तींन उनका ही रहेगा इसे स्वीकार नहीं किया. 1917 में जब युद्ध चल ही रहा था तो ब्रिटेन और फ्रांस ने एक गोपनीय संधि की और इसके पूरा करने का दायित्व ब्रिटिश विदेश मंत्री लार्ड आर्थर बालफोर को सौंपा गया. लार्ड आर्थर वाल्फोर ने वाल्फोर घोषणा पत्र जारी किया. इस घोषणा पत्र में गोपनीय रूप से यहूदियों के लिए फिलिस्तीन में एक राष्ट्रीय गृह जिसे अंग्रेज़ी में a jewish home in Palestine  का संकल्प कहा गया. का प्राविधान रखा गया  साथ ही ब्रिटेन और फ़्रांस ने साइक्स पिकोट संधि के नाम से एक गोपनीय समझौता किया जिस के अनुसार ओटोमन साम्राज्य से अलग हुए अरब प्रांत पर इन दोनों यूरोपियन ताक़तों का साझा नियंत्रण का प्राविधान था. ज्ञातव्य है तब तक तेल के भंडार का पता चल चुका था. 


युद्ध 1918 में समाप्त हो गया. दुनिया का स्वरुप बदल गया था. एक विश्व पंचायत की आवश्यकता महसूस होने लगी थी. लीग ऑफ़ नेशंस का गठन हुआ. ब्रिटेन और फ़्रांस इस लीग में अच्छी हैसियत में थे. उन्होंने अपने प्रभाव से विखर गए ओटोमन साम्राज्य के टुकड़ो को अर्ध औपनिवेशिक राज्य के रूप में रखने की बात कही. यह भी एक प्रकार की दासता ही थी. भारत की देसी रियासतें कहने के लिए ब्रिटिश राज्य के सीधे नियंत्रण में नहीं थी पर ब्रिटेन की मर्जी के बिना वे कोई निर्णय ले भी नहीं पाती थी. यही स्थिति यहां भी ये दोनों महा शक्तियां चाहती थी. इसे नाम दिया गया quasi colonoiol authorty. जिन जिन भू भागों पर फ़्रांस का कब्ज़ा हुआ वह फ्रेंच मैंडेट और जहां ब्रिटेन का प्रभुत्व हुआ वह ब्रिटिश मैंडेट कहलाया. इस तरन अरब का फिकिस्तीं भाग ब्रिटिश मैंडेट कहलाया. ब्रिटेन का मैंडेट इराक, आज का इजराइल , जॉर्डन नदी का पश्चिमी किनारा, वेस्ट बैंक, और गाजा पट्टी पर हुआ.

1921 में ब्रिटेन ने अपने मैंडेट के अंतर्गत आये हुए हिस्से को दो भागों में बांटा. एक भाग जो जॉर्डन नदी के पूर्वी किनारे का था को ट्रांस जॉर्डन का अमीरात और दूसरा जो जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे का भू भाग था, वह फिलिस्तीनी मैंडेट कहलाया. ट्रांस जॉर्डन अमीरात का शासन फैज़ल जिसके नेत्रित्व में अरब विद्रोह हुआ था के भाई अब्दुल्ला को सौंपा गया. इस प्रकार इतिहास में पहली बार फिलस्तीन एक राज्य ईकाई के रूप में विश्व के मानचित्र पर आया.

आप को याद दिला दूँ, जब अरबों ने ब्रिटेन के कहने पर ओटोमन साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया था तो, ब्रिटेन ने उन्हें स्वतंत्र सार्वभौम और संप्रभु राष्ट्र बनाने का वादा किया था. पर राजनीति और कूटनीति में वादों का कोई मूल्य नहीं होता. इसके विपरीत ब्रिटेन और फ़्रांस ने पूरे अरब राज्य को ही आपस में बाँट लिया. इस की अरब जगत में बहुत ही विपरीत प्रतिक्रिया हुयी. उन्होंने इसे अरबों के स्व निर्णय के अधिकार का हनन माना. उधर फिलिस्तीन में स्थितियां और विपरीत हो रही थी. एक तरफ ब्रिटेन ने यह वादा किया था कि वह यहूदियों को इजराइल में उनका अपना राष्ट्र बनवाने के लिए वचन बद्ध है. दूसरी तरफ पूरा फिकिस्तीन इजराइल के राज्य को अपने भूभाग पर अतिक्रमण मान रहा था  उधर यूरोप और अमेरिका में फैले यहूदियों के परिवारों ने फिलिस्तीन के इस क्षेत्र में ज़मीने खरीदना और प्रवास करना शुरू कर दिया. इस का विरोध फिलिस्तीनी किसानों , पत्रकारों और नेताओं ने करना शुरू कर दिया. धीरे धीरे यहूदी बनाम फिलस्तीनी लोगों में तनाव और यदा कदा हिंसक झडपें भी होने लगी. फिकिस्तींनियों को लगा कि यहूदियों का यह आगमन और प्रवास अंततः एक यहूदी राज्य की नीव ही बनेगा  उनकी यह आशंका सच ही थी. उधर अरब ब्रिटश मैंडेट के विरुद्ध थे ही. उन्होंने फिलिस्तीनियों का खुल कर समर्थन करना शुरू कर दिया. ब्रिटेन का ज़बरदस्त विरोध भी होने लगा.

1920 -1921 में अरब और यहूदियों के बीच खुला संघर्ष हुआ. जिसमें दोनों तरफ से जन हानि हुयी. यहूदियों ने जेविश नॅशनल फंड के नाम से एक कोष स्थापित कर रहा था. दुनिया भर के संपन्न यहूदी इसे धन दे कर समृद्ध कर रहे थे. यह फंड सामूहिक रूप से अरबों की ज़मीनें खरीद कर यहूदियों को बसा रहा था. यहूदियों का बसना और अरबों का विस्थापित होना शुरू हो चूका था. इस से तनाव बढ़ा और अरबो और यहूदियों के बीच हिंसक घटनाएँ भी बढ़ने लगीं. 


1928 को मुस्लिमों और यहूदियों के बीच अब धर्म का एंगल जो अब तक छुपा हुआ था खुल कर सामने आ गया. जेरूसलम में यहूदियों की प्रसिद्द वेलिंग वाल है. यह उनके लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना मुस्लिमों के लिए काबा. यह एक यहूदी मंदिर का भग्नावशेष है. और यहूदी धर्म का सबसे पवित्र स्थान है. इसी स्थान के ऊपर टेम्पल माउंट है. इतिहास में दो इजराइली यहूदी मंदिरों की बात की जाती है. लेकिन दूसरे मंदिर के पुरातात्विक प्रमाण तो मिलते हैं लेकिन पहले मंदिर का ज़िक्र केवल आख्यानों में है. इनका कोई अन्य श्रोत पुष्टि नहीं करता है. यह स्थान मुस्लिमों के लिए भी मक्का, मदीना के बाद सबसे पवित्र माना जाता है. यहाँ अल अक्सा मस्जिद है. मान्यता यह है कि हजरत मुहम्मद यहीं से एक श्वेत अश्व जिस का नाम अल बुराक है पर सवार हो कर स्वर्ग गए थे. अल बुराक एक काल्पनिक अश्व है जिसके दोनों और पंख थे. इन्ही के सहारे वह उड़ता था  इस प्रकार यह भी एक विवाद का कारण बना 


यहूदियों का एक युवा संगठन भी सक्रिय था. इसका नाम बेतर जेविश यूथ मूवमेंट था. इसने 15 अगुस्त 1929 को उस पवित्र वाल पर यहूदियों का राध्त्रिय ध्वज फहरा दिया. इसकी ज़बरदस्त प्रतिक्रिया अरबों में हुयी. उन्होंने जेरूसलम, हेब्रोन, और सफ़ेद नगरों में जो यहूदी आबादी थी उस पर हमला कर दिया. इस साम्प्रदायिक हिंसा में हेब्रोन में 64 यहूदी मारे गए. हालांकि कईयों को उनके मुस्लिम पड़ोसियों और मित्रों ने बचाया भी. एक सप्ताह तक चले इस दंगे में 133 यहूदी, और 115 अर्ब मारे गए. सैकड़ों घायल हुए.

तब तक यूरोप के इतिहास में घटना कर्म तेज़ी से फ़ैल रहा था. जर्मनी में हिटलर का उदय हो चूका था. उसने यहूदियों पर अत्याचार भी शुरू कर दिए थे. परिनापतः यहूदियों का विश्वव्यापी पलायन शुरू हुआ. बहुत से यहूदियों ने फिलिस्तीन की और रुख किया. यह घटना 1933 की है. 1936 -1939 में अरब जो ब्रिटिश मैंडेट के पहले से खिलाफ थे अब सीधे आन्दोलन और सशत्र विद्रोह पर उतर आये. इस विद्रोह को दबाने में यहूदी संगठनों ने खुल कर ब्रिटेन का साथ दिया. यह विद्रोह दबा भी दिया गया. अब अंग्रेजों ने फिर पलटी मारी. उन्होंने 1939 में एक श्वेत पत्र जारी किया . यह पत्र अंग्रेजों की अरब नीति के सम्बन्ध में रहा. इस श्वेत पत्र में निम्न बातें थीं. 
1,
यहूदियों द्वारा फिलस्तीनी क्षेत्र में भूमि खरीदने पर रोक लगाने और उनके आगमन को नियंत्रित करने, 
2,
दस साल में फिलस्तीन को आज़ाद करने, 
का उल्लेख था  
यहूदियों ने इसे विश्वासघात माना। उन्होंने इसे वाल्फोर घोषणा पत्र जिस मे यहूदियों कों एक स्वतंत्र गृह राज्य देने का वादा किया गया था के बिलकुल विपरीत इस श्वेत पत्र को माना. लेकिन इस के बाद ही यहूदियों और ब्रिटेन का आपसी तालमेल और गठबंधन सनाप्त हो गया.  अरबों को भी नुकसान हुआ और वे कमज़ोर हो गए. फिलिस्तीन एक बिखरे हुए राज्य के सामान उभरा.

प्रश्न उठता है, ब्रिटेन ने किस कारण अरबों की तरफ अपना झुकाव किया और यहूदियों से वचन भंग किया ? कारण स्पष्ट है. तेल का भंडार और इस की आर्थिक ताक़त. आखिर सर्वे गुणा कांचन माश्रयन्ति  !! 
-vss.
क्रमशः


Friday 25 July 2014

इसराइल फिलिस्तीन संघर्ष एक ऐतिहासिक विवेचन.. 1........विजय शंकर सिंह


इसराइल और फिलिस्तीन के बीच विवाद अब बेहद खतरनाक विन्दु पर पहुँच गया है. इस्राइल ने विश्व जनमत को किनारे कर अपना युद्ध अभियान जारी रखा है. उधर हमास भी शांत नहीं है. लगभग 800 के आस पास फिलिस्तीन नागरिक मारे जा चुके है, और कुछ इसराली नागरिक भी मरे हैं. लेकिन इस विवाद और टकराव का एक ऐतिहासिक पक्ष भी है. आइये देखें ज़रा अतीत में और इस उलझे हुए धागे का सिरा ढूँढने की कोशिश करें.

फिलिस्तीनी अरब और यहूदी इसराइल के बीच वर्तमान विवाद की शुरुआत उन्नीसवीं सदी से हुयी है. यह विवाद धर्म आधारित उतना नहीं है, जितना भूमि से सम्बंधित है. दोनों क्षेत्रों में अलग अलग धर्मों के लोग अब भी हैं. इसराइल में भी यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धर्म के लोग रहते हैं, लेकिन यहूदी बहुसंख्यक हैं जब कि अन्य धर्मावलम्बी अल्पसंख्यक. इसी फिलिस्तीन में भी तीन धर्मों के लोग, मुस्लिम, ईसाई, और ड्रुज़ धर्म के लोग रहते हैं. ड्रुज़ एक स्थानीय और कबीलाई धर्म है. इसके मानने वालों की संख्या बहुत कम है. मुस्लिम बहुसंख्यक हैं. यह विवाद ज़मीन के कब्ज़े को लेकर शुरू हुआ है और वही युद्ध का मूल कारण भी है. प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति से लेकर 1948 तक इस क्षेत्र को दोनों ही अपना बताते थे और अन्तराष्ट्रीय जगत में यह क्षेत्र फिलिस्तीनी इलाके के रूप में जाना जाता रहा है. यही नहीं तीनों सेमेटिक धर्म जो पैगंबरवाद की अवधारणा में विश्वास करते हैं, जैसे  यहूदी, इसाई और इस्लाम के मानने वाले इसे पवित्र भूमि के रूप में मानते थे और आज भी अपना हक इस पर जताते हैं. 1948 - 1949 के इस्राइल अरब युद्ध में यह क्षेत्र तीन भागों में बांटा गया. इसराइल का राज्य, जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे का भाग जो वेस्ट बैंक के नाम से जाना जाता है, और गाजा पट्टी.


यह पूरा भूभाग 10000 किलो मीटर का एक क्षेत्र था. तीनों भूभाग के रहने वालों में विवाद था अतः कोई एक राजनैतिक शक्ति तीनों की सहमति से उभर कर नहीं आ पायी और इस बंटवारे के बाद भी विवाद बढ़ा ही, कम नहीं हुआ. यहूदियों ने इस भूमि पर अपना दावा बाइबिल की एक कथा जो ओल्ड टेस्टामेंट में है के आधार पर जताया. बाइबिल में यह भूमि, इस्राइल कबीले जो हजरत मूसा से जुड़ा था को रहने के लिए ईश्वर द्वारा दी गयी थी. अब्राहम की संतानों को रहने का आदेश खुद ईश्वर का था. इस आधार पर इसराइल ने इस भूभाग पर अपना दावा प्रस्तुत किया. उधर फिलिस्तीनीयों का कहना था कि वे इस भूभाग के मूल निवासी है और सदियों से यहाँ रहते आये हैं. उनकी आबादी भी उस क्षेत्र में सबसे अधिक है अतः यह भूभाग उन्ही का है. यहाँ तक कि 1948 में जब इसराइल राज्य का गठन हुआ तब भी 
फिकिस्तिनियों की जनसँख्या सबसे अधिक थी. उन्होंने इसराइल के इस दावे को जो बाइबिल की कथा के आधार पर था को नहीं माना और इस भूभाग को अपना ही बताया. बाइबिल की कथा में यह बताया गया है कि ईश्वर ने अब्राहम की संतानों को यह भूभाग देने का वादा किया है तो हजरत इस्माइल जिनसे अरबों की उत्पत्ति मानी जाती है तो वह भी तो अब्राहम की संतान हुए. अतः अब्राहम के संतान का सिद्धांत इस भूभाग पर रहने का आधार बनता है तो, यह अधिकार फिलिस्तीनों को भी है. क्यों कि वे भी अरब की ही एक शाखा हैं. उनका कहना था यूरोप को, कोई अधिकार नहीं है कि वह यहूदियों पर हुए पाशविक अत्याचारों के बदले उनका भूभाग बाइबिल की एक कथा के आधार पर छीन कर यहूदियों को दे दे और एक राज्य का गठन कर दे.


उन्नीसवीं सदी में  विश्व में राष्ट्रीयता की एक नयी और अलग धारणा का सूत्रपात हुआ. यूरोप इस नवीन विचार का केंद्र बना. वहाँ भी विभिन्न समुदाय और जातिगत वर्गों ने अपने अपने राष्ट्र के बारे में सोचना शुरू कर दिया. सभी अपने लिए एक स्वतंत्र और सार्वभौम राज्य चाहने लगे थे. उन्नीसवीं सदी के यूरोप के इतिहास का अध्ययन करें तो आप एक नए प्रकार का राष्ट्रीय आन्दोलान की सुगबुगाहट महसूस करेंगे. यही प्रतिक्रया यहूदियों और फिलिस्तीनियों में भी हुयी. दोनों ने खुद के लिए एक सार्वभौम और संप्रभु राज्य के लिए अपने अपने लोगों को जगाना शुरू कर दिया.  उस समय तक यहूदियों का कोई देश नहीं था. वे पूरी दुनिया में बिखरे हुए थे. उनके अन्दर भी एक संप्रभु और सार्वाभौम राज्य के निर्माण की भावना जागृत हुयी. दुनिया भर में बिखरे और खानाबदोश यहूदियों के लिए जब जगह की तलाश हुयी तो यही क्षेत्र सामने आया. इस क्षेत्र का नाम इस्राइल ओल्ड टेस्टामेंट के युग से भी था, और इसी क्षेत्र को यहूदियों ने खुद के लिए उपयुक्त पाया.1882 में पहला यहूदी आन्दोलन जिसे जीयोनिस्ट आन्दोलन के नाम से इतिहास में जाना जाता है, प्रारम्भ हुआ. पहली बार इस भूभाग पर दुनिया भर में विखरे और भटक रहे यहूदीयों का एक जत्था यहाँ पहुंचा. यह् उसी प्रकार का पुनर्वास माना गया जैसा कि ओल्ड टेस्टामेंट में वर्णित है.

उस समय फिलिस्तीन ओट्टोमान साम्राज्य का ही भाग था. मध्य एशिया का यह एक विशाल और सुगठित साम्राज्य था. यह भूभाग कोई स्वतंत्र भाग नहीं था और न ही कोई स्वतंत्र राजनैतिक ईकाई थी. इसके उत्तरी जिले एकर और नबुलुस बेरूत प्रांत के, जेरुसलम, और बेथेल्हेम अपनी धार्मिक विशिष्टता के कारण सीधे ओटोमान सामाराज्य की राजधानी इस्ताम्बुल से शासित थे. जेरुसलम यहूदियों ईसाइयों और मुस्लिमों तीनों के लिए पवित्र था, जब कि बेथेल्हेम में ईसा का जन्म हुआ था. 1878 के ओट्टोमान साम्राज्य के अभिलेखों के अनुसार, जेरूसलम, एकर, और नाबुलुस की कुल आबादी 4,62,465 थी. जिसमें 4,30,795  मुस्लिम इनमें ड्रुज़ भी शामिल थे, 43,659 ईसाई और 15,011 यहूदी थे.  इसके अतिरिक्त 10000 वे यहूदी भी थे जो बाहर से आये थे और उनकी नागरिकता उन देशों की थी जहां से वे आये थे. साथ ही हज़ारों की   संख्या उनकी थी जो अरब कबीले के जन जातियों के थे और घुमक्कड़ थे. बहुत बड़ी संख्या में अरब के सैकड़ों गाँव में मुस्लिम और ईसाई दोनों ही साथ रहते थे. जफा और नेबुलुस दोनों ही बड़े शहर थे रहते थे और आर्थिक रूप से समृद्ध भी थे.

बीसवी सदी के पूर्वार्ध तक फिलिस्तीन में जो यहूदी रहते थे उनकी संख्या बहुत कम थी और वे मुख्यतः यहूदियों के धार्मिक नगर जेरूसलम, हेब्ब्रोन, सफ़ेद और टिब्रीस में ही केन्द्रित थे. यह सब मूलतः धार्मिक थे. इनका जीवन यापन दुनिया भर में फैले यहूदियों द्वारा दिए गए दान पुण्य से चलता था. इनकी गतिविधियाँ मूलतः धार्मिक ही थीं. इनका इस भूभाग से लगाव धार्मिक था, राष्ट्रीय नहीं. ये किसी भी प्रकार के जिओनिस्ट आन्दोलन से जुड़े नहीं थे. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ 1914 होते होते इस भूभाग की जनसँख्या में उल्लेखनीय परिवर्तन आया. और इनकी जनसँख्या 60,000 तक बढ़ गयी. जिसमें 36, 000 वे थे जो हाल ही में इस भूभाग पर आये थे. उस समय यहाँ अरबों की जनसँख्या 1914 में 6,83,000 थी. 
क्रमशः 
   


Thursday 24 July 2014

माननीय संसद सदस्यों के नाम एक पत्र , महाराष्ट्र सदन की कैंटीन मैनेजर के साथ घटी घटना के सन्दर्भ में ...विजय शंकर सिंह


प्रिय सांसदों,

आप की ही बिरादरी के एक सज्जन को एक राज्य सदन का भोजन पसंद नहीं आया. आता भी कैसे, संसद और विधान भवन की कैंटीनों का स्वाद भला बाहर कहाँ मिलता है ! उन्हें जो रोटी मिली वह झुलसी हुयी थी. उन्हें क्रोध आया जो स्वाभाविक था. जब शक्ति का संचार बढ़ जाता है तो क्रोध बहुत आता ही है. सो उन्हें भी आ गया. क्रोध तो वैसे भी विचारों का नाश कर देता है. अतः उस भाग्य विधाता ने बिना बिचारे ही कैंटीन मेनेजर को बुलाया और उसे रोटी खिला दी. खिला क्या दी ठूंस दी उस के मुंह में. वह हक्का बक्का रह गया. मित्र गण कह रहे हैं कि उसने सही किया. तो मित्रों अब सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ कुछ नियमानुकूल कार्यवाही की बात करना छोडिये. जो भी सरकारी कर्मचारी अपना काम ठीक से न करे उसके मुंह में कुछ न कुछ ठूंसने का नियम बना दीजिये. सच मानिए देश प्रगति पथ पर चल पड़ेगा. न फ़ाइल खोलने का झंझट, न गवाही, न जिरह बस सीधे दंड. वैसे भी सरकारी कर्मचारी बेलगाम तो हो ही गए है.
छोडिये और बातों को, इस सिलसिले को खाने पीने तक ही सीमित रखें. देश भर के स्कूलों में मिड डे मील यानी बच्चों के सकूलों में दोपहर के खाने की व्यवस्था सरकार करती है. लेकिन यह कितनी कारगर है, सभी को पता है. किसी जगह, भोजन में कीड़े निकल आते हैं तो किसी जगह सांप बिच्छू. कुछ बच्चे मर भी गए है. अखबारों में खूब छपता है और फेसबुक तो आन्दोलन का गढ़ है ही. पुलिस मुकदमे भी कायम करती है. लेकिन शिकायतें तो आती ही रहती हैं. आप सब के क्षेत्र में यह योजना चल ही रही होगी. क्या आप उन स्कूलों का निरीक्षण कर, उस भोजन का स्वाद चखना स्वीकार करेंगे ? कह कर मत जाइएगा, अचानक बिना बताये बिना किसी ताम झाम के जाइएगा. भोजन अगर अच्छा मिला तो कुछ इनाम दे आइयेगा, आखिर कौन सा आप को अपनी जेब से देना है. एम् पी फण्ड तो है ही. उसी में से कुछ उपकार कर दीजियेगा. त्वदीयं वस्तु गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पिते ! आप का वोट ही बढेगा. हाँ अगर भोजन आप के स्वादानुकूल न हुआ तो उस स्कूल के प्रधानाध्यापक को और जो इसका इंतज़ाम देखता है, उसे बुलाइयेग और जबरन जो बना है वैसे ही ठूंस दीजियेगा जैसा आप के गोल के एक सज्जन ने एक सदन के मेनेजर के साथ किया था.
देखिये क्या प्रतिक्रिया होती है. अच्छी भी होगी. इस से इलाके में आप का रोब ग़ालिब हो जाएगा और सच मानिए कुछ स्कूलों का खान पान तो सुधर ही जाएगा. यह भी हो सकता है कि कुछ अध्यापक संगठन हड़ताल पर उतर आयें. पर यह बात तो आप को बिलकुल गवारा नहीं होगी. आखिर चुनाव भी तो लड़ना है. चुनाव में स्कूलों के अध्यापक किसी को जिता भले न पायें पर हराने का तो माहौल बना ही देते है. लेकिन सदन का यह बेचारा कर्मचारी, विचारे महोदय का क्या बिगाड़ सकता है. यही स्कूल होता तो देखते मान्यवरों.
अंत में अपने खाने पीने का ध्यान ज़रूर रखियेगा. देश को कठिन परिस्तिथि से उबारना भी है. आप सब पर एक गुरुतर दायित्व भी है. एक मल्टी परपज कूपन व्यवस्था भी आप सब शुरू कर सकते हैं जिस से देश में जहां भी जिस भी रेस्तरां में आप जाएँ आप को आप के स्तर और स्वादानुकूल भोजन भी मिल जाया करे. आखिर असीमित बिजली, फोन, रेल यात्रा और हवाई यात्रा की सुविधा तो है ही. थोड़ा ही तो खर्च बढेगा. खर्च की चिन्ता छोडिय. खजाना खाली हो, भरा हो कोई बात नहीं, प्रभु, आप सब तृप्त रहें ! आज यही मन में आया सोचा लिख दूं. शेष फिर कभी. आप सब सुखी और सानन्द रहें. और हाँ, मेरी बात पर ज़रा ध्यान दीजियेगा. 

आप का ही,
विजय शंकर सिंह