Sunday 22 June 2014

राष्ट्र भाषा हिंदी पर प्रसंगवश...........विजय शंकर सिंह



जिन राजनीतिक कारणों से हिंदी का विरोध तमिलनाडु में किया जा रहा है, उन्ही राजनीतिक कारणों से इसे पुनः प्रतिष्ठापित करने की बात भी सरकार कर रही है. कोई भी भाषा राज संरक्षण तो पा सकती है पर उसका विकास केवल सरकार के चाहने भर से नहीं हो सकता. हिंदी भारत सरकार के सभी कार्यालयों और प्रतिष्ठानों में स्वीकृत भाषा है. हर गजट, पत्र, नोटिफिकेशन अंग्रेज़ी के साथ साथ हिंदी में भी छपते है. बार बार हम हिंदी हिंदी की बात कर के यही वातावरण बना देते हैं जैसे कि इसके पहले हिंदी थी ही नहीं. इसकी तुरंत प्रक्रिया तमिलनाडु में होने लगती है. मैं आज तक यह समझ नहीं पाया हिंदी से तमिलनाडु को इतनी दिक्कत क्यों है. लेकिन एक बात समझ में आती है कि दिक्कत भाषा से नहीं भाषा की राजनीति से है. और राजनीति की प्रतिक्रिया तो होगी ही.

अभी कुछ दिनों पहले एक खबर से पता चला था कि तमिलनाडु में भी एक वर्ग हिंदी सीखने को आतुर है. वह उन स्कूलों में अपने बच्चे नहीं भेज रहा है जहां हिंदी वैकल्पिक भाषा के रूप में नहीं है. यह मोह किसी भाषा के कारण नहीं ज़रूरतों के कारण है. वहाँ के लोगों को लगता है कि अगर उन्होंने हिंदी नहीं पढ़ा तो देश की मुख्या धारा से अलग थलग हो जायेंगे. यही भय उन्हें हिंदी की तरफ ले जा रहा है. बहुत से तमिलभाषी जो उत्तर भारत में कार्यरत है हिंदी बहुत अच्छी बोल लेते हैं. लिख भी लेते हैं. पढ़ भी. लेकिन ढेर सारे उत्तरभारतीय जो तमिल नाडू में काम कर रहे हैं, वह तमिल के कुछ शब्द भले समझ लेते हों लेकिन बोलते बहुत ही कम है. वे अपना काम अंग्रेज़ी में चला लेते हैं. या टूटी फूटी हिंदी में. उनका काम चल जाता है, इस लिए वे तमिल सीखना नहीं चाहते. इसके विपरीत जो तमिल भाषी उत्तर भारत में कार्यरत है अच्छी हिंदी बोलते हैं क्यों कि उन्हें लगता है कि इस से वे अपना काम बखूबी चला लेंगे.

तमिल नाडू में हिंदी विरोध भाषा का ही विरोध नहीं है. इसकी जड़ें सांस्कृतिक अलगाववाद में है. एक समय स्वतंत्र द्रविड़स्तान की मांग ने भी बहुत जोर पकड़ा था. इसका कारण आर्य संस्कृत का विरोध ही रहा है. द्रविड़ कड़गम आन्दोलन इस का ध्वजा वाहक रहा है. पेरियार रामास्वामी नायकर के नेत्रित्व में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और आर्य संस्कृति के विरोध में वहाँ व्यापक आन्दोलन चला. यह मूलतः समाज सुधार आन्दोलन था. धीरे धीरे सब सामान्य हो गया. हिंदी का विरोध वहा एक राजनैतिक एजेंडे की तरह है, जैसे मराठी माणूस की बात महाराष्ट्र में शिव सेना करती रहती है.

भाषा का रोज़गार से जुड़ना ज़रूरी है. जो भाषाएँ रोज़गार से नहीं जुडती हैं, वे धीरे धीरे संकुचित होने लगती है. संस्कृत को ही लीजिये. आज संस्कृत रोजगार से दूर है, तो उसकी तरफ कोई रुझान नहीं है. जब कि जितना इस भाषा में अब तक लिखा जा चुका है, वही इसे आज भी सिरमौर बनाए हुए है. किसी ज़माने में जब मुस्लिम राज वंशों की स्थापना हुयी तो, फारसी यहाँ की भाषा बनी. फारसी को राजभाषा बनाने के लिए कोई प्रस्ताव न तो पास किया गया था, और न ही उसका विरोध हुआ था. बस राजकार्य उस भाषा में होने लगा. लोगों को उसे इसलिए उस भाषा को पढना पड़ा कि बिना उसे जाने उन्हें न नौकरी मिलती थी न सम्मान तो उन्होंने उसे पढ़ा पढ़ाया और अपनाया.

अँगरेज़ जब आये तो अंग्रेज़ी ने वही स्थान ले लिया जो मध्य युग में फारसी का था. उस समय फारसी जानना उपहास का कारण बन गया. एक मुहावरा भी संभवतः उसी समय से प्रचलित हुआ होगा, पढ़ें फारसी बेचे तेल, यह देखो कुदरत का खेल ! यही बात संस्कृत के विद्वानों के लिए भी मजाक में कही जाती है कि वह पोंगा पंडित है. इस प्रकार जब संस्कृत रोज़गार देने में सक्षम रही, तो संस्कृत, जब फारसी रोज़गार देने में सक्षम रही तो फारसी और जब अंग्रेज़ी रोज़गार देने में सक्षम है तो अंग्रेज़ी का प्रचार और वर्चस्व बना है. इसमें किसी भाषा के साथ कोई भावनात्मक लगाव नहीं है बस आवश्यकता आविष्कार की जननी है का ही भाव है. यही भाव तमिलनाडु के एक वर्ग को हिंदी के पक्ष में खड़े किये हुए है.

हम वैसे हिंदी की बात हम हिंदी दिवस, तथा अन्य अवसरों पर खूब करते है, पर जब उन जगहों पर जहां हिंदी समझने वाले बहुतेरे हों तो भी हाँ अंग्रेज़ी में बात करते है. यह एक दास मनोवृत्ति है, एक प्रकार की हीन ग्रंथि है. हम यह जतलाना चाहते है कि अंग्रेज़ी हम भी जानते है. अगर हम सिर्फ इतनी कृपा करें कि जहां हिंदी खूब बोली और समझी जाती हो वहाँ धड़ल्ले के साथ हिंदी का प्रयोग करें तो हिंदी का भला ही होगा. हिंदी के पक्ष में खड़े कितने नेताओं के बच्चे हिंदी स्कूलों में ही पढ़ें है ? इसका कोई आंकड़ा होगा तो उसका अध्ययन बहुत रोचक होगा. नयी पीढी के बच्चो से पूछिए उनके पसंदीदा लेखक कौन हैं ? वे हिंदी के नहीं अंग्रेज़ी के लेखकों और उनकी कृतियो के नाम बताएँगे. यह उनका दोष नहीं है, दोष हमारा है जिन्होंने उनके मन में हिंदी भाषा और साहित्य के बारे में अनुराग ही नहीं पैदा किया. अपना भाव बढाने के लिए हमें भी कुछ लेखकों और उनकी कृतियों के नाम याद रखने पड़ते हैं, भले ही उन्हें हम पढ़े न हों या पढ़े भी हों तो अनुवाद के माध्यम से !

हम अक्सर जापान और चीन का उदाहरण देते है कि वे अपनी भाषा को लेकर बहुत संवेदनशील होते हैं. इसका सबसे प्रमुख कारण उनका कभी गुलाम न होना भी रहा है. जापान पर किसी देश ने कभी राज नहीं किया. चीन भी उस तरह से जिस तरह से हम विभिन्न कालों में विभिन्न भाषाई शासकों के शासन में रहे हैं, वह कभी नहीं रहे है. इसी लिए उनकी भाषाई अस्मिता का क्षरण नहीं हो पाया. हम में से उर्दू लिपि में शायद बहुत कम लोग उर्दू पढ़ पायें. पर उर्दू के शेर सबसे अधिक लोकप्रिय हैं और हम धड़ल्ले के साथ इनका इस्तेमाल करते हैं. उर्दू हम किसी शासनादेश के तहत नहीं पसंद करते, बल्कि वह पसंद आती है इस लिए हम उसे पसंद करते हैं. हिंदी फ़िल्में वहाँ भी बहुत लोकप्रिय हैं, जहां लोग हिंदी बिलकुल नहीं बोलते है. इस तरह जो भाषा, रोज़गार से जुड़ेगी, मन को छुएगी, जिसमें सम्प्रेषण की क्षमता होगी वह प्रगति करेगी.

हिंदी का विरोध भी उतना ही राजनैतिक है जितना हिंदी को लेकर सरकार का नया दृष्टिकोण. मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना के इस संस्कृति में एक भाषा, एक धर्म, एक देव, की बात करना एक भ्रम फैलाने जैसा है !
-vss.


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