Wednesday 25 June 2014

संतो देखो, जग बौराना.............. विजय शंकर सिंह


जब भी धर्म के नाम पर श्रद्धा का मिथ्या अहंकार ठाठें मारने लगता है , तब कबीर अनायास याद आते है. काशी याद आता है. सनातन धर्म के मर्मस्थल से उठी उनकी साखी शबद रमैनी याद आती है. याद आती है , सारे पाखण्ड के नगाड़ों के बीच उनकी तूती सी आवाज़, जो उन नगाड़ों की ध्वनि पर भी अलग नाद उत्पन्न करती है. आज जब शंकराचार्य का कथन, साईं भक्तों का साईं के उपदेशों के विपरीत आचरण देखने को मिल रहा है तो कबीर का याद आना स्वाभाविक है. कभी  सोचता हूँ, अगर कबीर आज पैदा होते, और दशाश्वमेध की गलियों और गंगा घाटों पर अपनी बात कहते तो उनके खिलाफ इतनी रपटें, मुक़दमे, श्रद्धा वीर कायम करा दिए होते कि उन्हें पैरवी के लिए वकीन नहीं मिलते. और उन्हें इन्ही बातो के कहने पर एन एस ए में भी निरुद्ध कर दिया गया जाता. पर कबीर, बिदास रहे, बेलौस बोले, और सबके खिलाफ तंज़ कसा.

संतो देखउ जग बौराना,
सांच कहो तो मारन धावे,
झूठे जग पतियाना,
नेमी देखे, धर्मी देखे,
प्रात करहि असनाना,
आतप मारि पाषण ही पूजे,
उनमें कछू न गयाना,
बहुतक देखे पीर औलिया,
पढ़े, किताब कुराना,
कै मुरीद तदवीर बतावे,
उनमें उहै गियाना,
आसन मारि डिम्भ धरि बैठे,
मन में बहुत गुमाना,
पीतर पाथर पूजन लागे,
तीरथ गरब भुलाना,
माला पहिने टोपी दीन्हे,
छाप तिलक अनुमाना,
साखी सबदै गावत भूले,
आतम खबरि न जाना,
कह हिन्दू मोहिं राम पियारा,
तुरुक कहें रहिमाना,
आपस में दोउ लरि लरि मूए,
मर्म न काहू जाना !!
(कबीर)




Tuesday 24 June 2014

जाति न पूछो साधु की ! ................ विजय शंकर सिंह



आस्था, विश्वास, और श्र्स्द्ध, किसी आदेश, निर्देश, संहिता या व्यवस्था के अनुसार नहीं होती. पूरब में, मेरा तात्पर्य पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से है, गाँव के बाहर किसी पुराने पीपल पेड़ के नीचे कुछ अनगढ़ सा पत्थर, या मिटटी की ढूही बनी होती है. गाँव में जब विवाह की रस्म, किसी बच्चे का जन्म, या मुंडन या अन्य कोई उत्सव होता है तो उस स्थान पर कथा कही सुनी जाती है. इसे हमारे यहाँ डीह बाबा कहते हैं. इसे ग्राम देवता भी कहा जाता है. यह पूजा किस शास्त्रीय विधान, कर्मकांड के अंतर्गत होती है, नहीं मालूम. पर जैसा पंडित करा देते हैं हो जाती है. मान्यता यह है कि इस पूजा से अनिष्ट नहीं होता है. और अनिष्ट का भय, सुखद भ्स्विश्य की लालसा, और अज्ञात के प्रति जिज्ञासा इश्वर और धर्म का एक मोटी वेटिंग फैक्टर है. हर संकल्प के पहले जो मन्त्र पढ़े जाते हैं, उनमे ग्राम देवताभ्यो नमः भी कहा जाता है. इस प्रकार यह प्रथम देवता हुए.

आज शंकराचार्य का बयान आयी साईं बाबा के बारे में . उन्होंने कहा सनातन धर्म की परंपरा में साईं अवतार नहीं है. उन्होंने कहा कि वह हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक नहीं है, क्यों कि उनकी पूजा करने मुस्लिम नहीं जाते. उन्होंने कहा कि उनके मंदिर नहीं बन्ने चाहिए. इसी बात पर साईं भक्त बिफर पड़े. दिन भर श्रद्धा और सबूरी की माला जपने वाले सड़कों पर उतर कर सब्र खो दिए और शंकराचार्य का पुतला फूंकने लगे. किसी साईं भक्त ने शंकराचार्य की इस चुनौती को नहीं स्वीकार किया कि वह उनसे शास्त्रार्थ करे. उधर दारूल उलूम ने भी साई पूजा को इस्लाम के विरुद्ध घोषित कर दिया. कहीं किसी परम श्रद्धावान साईं भक्त का सब्र बिलकुल ही खत्म हो गया तो उन्होंने शंकराचार्य के विरुद्ध मुकदमा कायम करा दिया. यह कैसी श्रद्धा और यह कैसा सब्र !

शंकराचार्य ने क्या गलत कहा ? साईं सनातन धर्म परंपरा में अवतार की कोटि में नहीं आते. साईं का हिन्दू मुस्लिम एकता में कोई योगदान नहीं है. अगर है तो उनके भक्त बताएं.? उधर दारुल उलूम ने भी कोई बात अनुचित नहीं की. इस्लामी परम्परा में मूर्ति पूजा का कोई स्थान नहीं है, सो उन्होंने इसे गैर इस्लामिक करार दिया. लेकिन इन व्यवस्थाओं से उत्तेजित होने के बजाय साईं भक्त अपनी श्रद्धा और सबूरी बनाए रखते तो उनका मान ही बढ़ता.

साईं क्या थे, ? हिन्दू या मुस्लिम इस पर भ्रम है. मैं भी शिर्डी एक बार गया हूँ. साईं से जुडी कुछ किताबें भी खरीदी और पढी. उनसे जुड़े स्थान भी देखे. उनका इतिहास जानने के बाद उनके प्रति श्रद्धा ही बढी मेरी. वे एक पीर, या संत की तरह थे. और सबको आशीर्वाद देते थे. ऐसे बहुत से संत महात्मा इस धरती पर हुए हैं. ऐसे संतों के साथ अक्सर चमत्कार की अनेक कथाएं भी समय के साथ साथ जुडती जाती है. विश्वास जब अतिशय हो जाता है तो वह तर्क शक्ति का क्षरण कर देता है. ऐसे चमत्कार और दन्त कथाएं, ऐसे संतों को अवतार समान ही बना देती है. साईं बाबा के साथ भी यही हुआ.जिसकी श्रद्धा साईं बाबा पर है वह रखे. अगर साईं भक्ति और साईं पूजा से उनका कल्याण हो रहा हो तो इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? लेकिन शंकराचार्य के कथन का तार्किक उत्तर तो दिया ही जा सकता है, न कि उनका पुतला दहन हो.

साईं भक्तों की श्रद्धा इतनी आहत हो गयी है कि उनका सब्र समाप्त हो गया है.टी वी पर शंकराचार्य का पुतला फूंकते हुए और उनके खिलाफ मुक़दमा कायम कराते हुए उनका आचरण साईं भक्तों का नहीं एक साइन भक्त यूनियन का लग रहा है।  जिसकी श्रद्धा ज़रा सी विपरीत बयान बाज़ी पर आहत हो जाए समझिए कि श्रद्धा में कोई कमी रह गयी है बाबा ने सादगी का उदाहरण प्रस्तुत किया, भक्तों ने अवैध अर्जित संपत्ति दान कर उन्हें प्रदूषित कर दिया।  बाबा ने सब्र से जीने का उपदेश दिया इतनी सी बात पर की वह अवतार नहीं हैं और वह हिन्दू मुस्लिम एकता के दूत नहीं हैं, और मुस्लिम दरगाहों में साईं के भजन नहीं गाये जाते , लोग श्रद्धा भूल कर सब्र गंवा कर एक भक्त यूनियन के तर्ज़ पर आचरण करने लगे।  जिसके पूजने से मानवीय मूल्य ही न बचें न उनका विकास हो तो ऐसे पूजन को मैं पाखण्ड ही कहूँगा। 

ऊपर जो कथा मैंने ग्राम देवता डीह बाबा के बारे में सुनाई है, वह सिर्फ इस लिए कि आस्था और विश्वास को तर्कों से नहीं तय किया जा सकता. शंकराचार्य सनातन धर्म परम्परा में सर्वोच्च स्थान पर है. यह धर्म के चार पीठों का एक मंडल है. बद्रिकाश्रम, द्वारिका, पुरी, और कांची काम कोटि. इस शंकराचार्यों के अतिरिक्त एक सुमेरुपीठ काशी है. लेकिन काशी पीठ अभिशप्त मानी गयी है. इस प्रकार चार ही शंकराचार्य है. लेकिन इस समय तीन है. बद्रिकाश्रम और द्वारिका पीठ के ही शंकराचार्य हैं. जो स्वामी स्वरूपानंद हैं . स्वरूपानंद एक प्रखर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रह चुके हैं. वह आज़ादी के आन्दोलन में 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान जेल भी जा चुके है. सारे शंकराचार्य धर्म शास्त्र, दर्शन आदि के प्रकांड विद्वान् भी होते हैं. ब्रिटिश काल से ही सभी चार शंकराचार्यों का प्रोटोकोल भी निर्धारित है. और यह आज भी उनके भ्रमण के दौरान निभाया जाता है. पर कई शंकराचार्य इसे लेने से मना कर देते है. शंकराचार्यों की व्यवस्था, उनका आचार कर्तव्य  दायिरव आदि सब निर्धारित है. यह सब निर्धारण आदि शंकराचार्य के ही समय में हो ग्या था.

रहा सवाल भगवान् घोषित करने और मंदिर बनाने का तो, हमने तो क्रिकेट में भी भगवान घोषित कर लिया है, और शायद कहीं उनका मंदिर भी बना हो तो आश्चर्य नहीं. धोनी का तो मंदिर रांची में बन ही गया होता, अगर उनके घर वाले आपत्ति न किये होते तो. जिसे जो श्रद्धा हो जिसकी श्रद्धा हो पूजे, इस पर कोई ऐतराज़ नहीं है. लेकिन सनातन धर्म के शास्त्रीय विधान से स्वरूपानंद ने अपनी व्यवस्था दी है. जिसे इस शास्त्रीय रूप और उनके कथन पर आपत्ति हो वह उन्का उत्तर दे. सारे संत जिन्हीने समाज को कुछ न कुछ दिया है, उनका यह समाज ऋणी है, और उन पर श्रद्धा रखता है. साईं भी एक संत थे. और संतों की जाति भारतीय परंपरा में नहीं पूछी जाती. कहा भी गया है, जाति न पूछो साधु की !!

-vss.

धर्म और ईश्वर के नाम पर.... ....विजय शंकर सिंह



ईश्वर की कल्पना कब की गयी होगी. यह अनुमान लगाना कठिन है. लेकिन जब अज्ञात से भय, अपेक्षा, आकांशा का भाव जगा होगा तो ईश्वर का कुछ न कुछ रूप ज़रूर उभरा होगा. लेकिन वह रूप जटिल नहीं रहा होगा. एक से एक का ही वार्तालाप रहा होगा. कोई संगठन, कोई दर्शन, कोई संघ नहीं रहा होगा. जिनसे उसे भय दिखा होगा वह भी और जिनसे उसे कृपा मिली होगी वह भी ईश्वर के पद पर प्रतिष्ठापित हो गया होगा. जैसे जैसे विकास होता गया, जीवन की जयिलाताएं बढ़ती गयीं, और धीरे ईश्वर के साम्राज्य का भी विधान बनने लगा होगा. इसी से चल कर संगठन बने फिर धर्म, फिर उपासना पद्धति. फिर उपासकों का एक वर्ग बना और धीरे धीरे इतनी जटिलताएं हो गयीं कि उपासना भी कर्मकांड में बदल गयी. और कर्मकांड बोझ बन गया. फिर इसका विरोध शुरू हुआ हाँ साधारण से असाधारण जीवन शैली, सामान्य से आरामदेह या सुपर आरामदेह फिर वहाँ से भी ऊबने लगे तो वापस त्याग की धारणा भी खोज लिए. 

जब एक ईश्वर से काम नहीं चला. कल्पना शक्ति ने विविध ईश्वर ढूंढें. और फिर उनकी कहानिया. समाज के सापेक्ष समाज के ताने बाने से बुनती चली गयीं. बीच बीच में इस पर बहस भी हुयी कि वह है या नहीं. बहस अंतहीन समझ कर यह निष्कर्ष निकला होगा कि उस पर बहस करना फ़िज़ूल है. भीतर कहीं बैठे भय से यह तो नहीं कहा किसी ने कि, उसका अस्तित्व ही फ़िज़ूल है, बल्कि यह कहा कि वह अचिन्त्य है. उसके अस्तित्व बारे में बहस नहीं हो सकती. वह विश्वास, faith की चीज़ है. जिन्हें विश्वास था या है उनके अपने तर्क तब भी थे, आज भी हैं, जिन्हें उसके अस्तित्व पर ही विश्वास नहीं है, और न था, तब, उनके पास भी तर्क हैं और थे. इसी लिए बुद्ध इस पचड़े में नहीं पड़े, वह इस विषय पर चुप्पी साथ लेते थे. और अपने चत्वारि आर्य सत्यानि, यानी चार आर्य सत्यों की बात करने लगते थे. वह होशियार थे, अनावश्यक विवाद से दूर रहना चाहते थे. 

ईश्वर और धर्म के बारे में एक प्रबल तर्क यह दिया जाता है, कि धर्म मनुष्य को संस्कारित करता है. जीने का आधार प्रदान करता है. धारण करता है. और ईश्वर उसे संबल देता है. इसमें कोई शक नहीं कि धर्म हमें एक विक्सित शैली से समाज में जीने की बात बताता है, और ईश्वर एक अवलम्ब के रूप में, हमें अनावश्यक अहंकार और अवसाद से भी बचाता है. कुछ काल तक तो यह ठीक चला. समाज , धर्म और मनुष्य की मूल प्रवित्ति पानी की तरह है. अगर इसे कहीं प्रवाह आवागमन का नहीं मिले तो यह प्रदूषित और संकुचित होने लगता है. धर्म बाद में अपने कर्मकांड, और पौरोहित्यवाद के जकडन में इतना जकड गया कि, इसका विकास अवरुद्ध हो गया, और इसका सड़ना शुरू हो गया. लोग बदल गए, समाज बदल गया, मान्यताएं बदलने लगी, भौतिक उन्नति परवान चढ़ने लगी, बौद्धिक व्इकास के अनेक आयाम खुले, लेकिन धर्म की कुछ मान्यताएं आज भी जस की तस बनी रही. इसका एक कारण अज्ञात का भय और धर्म जीविकों का स्वार्थ भी रहा. 

आज जब धर्म के नाम पर अंतर्धार्मिक विवाद, इस्लाम, ईसाई, या इस्लाम यहूदी, या हिन्दू इस्लाम, या चीनी ताओ, और बौद्ध, या बौद्ध और इस्लाम, या एक ही धर्म के आतंरिक झगडे, intra religious conflicts, जैसे, शिया, सुन्नी, कैथोलिक प्रोतेस्तेंट्स, या मेथोडिस्ट, या बहुत पहले हिन्दू धर्म के शैव और वैष्णव, शाक्त, कापालिक, नाथ, और नागाओं के होते हैं तो यह अबोध जिज्ञासा उपजती है कि ईश्वर किसका है, और वह किस धर्म का है ? बात यहीं थोड़ा उपहासात्मक हो जाती है कि वह तो सब का पालनहार है, परम पिता है, फिर यह झगडा किसके लिए. वह आ कर यह तो कह नहीं सकता कि तुम मेरे नाम पर खून मत बहाओ. लेकिन एक दुखद और आश्चर्य जनक तथ्य यही है कि संसार के जितने युद्ध हुए है, जितना भी रक्त बहा है,वह सब ईश्वर और धर्म के नाम पर बहा है और आज भी बह रहा है. इसका कारण धर्म का स्वार्थी पौरोहित्यवाद द्वारा अपहरण कर लिया जाना है. 

दुनिया में एक धर्म, एक विचार, ईश्वर की एक व्याख्या कभी नहीं रही है. जिस दिन कोई विचार उत्पन्न होता है उसी क्षण उस विचार का प्रति विचार या तो उत्पन्न हो जाता है, या उसके उत्पन्न होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. जिन धर्मों में वाद विवाद और शास्त्रार्थ की परम्परा रहती है वहाँ उत्पन्न बौद्धिक असंतोष राह पा जाता है. या तो कोई नयी धारा फूट पड़ती है, या असंतोष का शमन और समाधान हो जाता है. जहां वाद विवाद का कोई स्कोप नहीं रहता, वहाँ तर्क के स्थान पर प्रतितर्क नहीं बल्कि बल उभरता है. इस से असंतोष का न तो शमन होता है और न ही समाधान, बल्कि बलपूर्वक दमित असंतोष, प्रतिहिंसा से उग्र हो जाता है. आज इस्लाम में जो आतंकवादी तत्व उभर रहे हैं, उनका एक कारण यह भी है. 

अकसर हम पैन इस्लामिक धारणा की बात सुनते हैं. यह भी कहा जाता है कि सारे विश्व को तथाकथित ज़हालत से मुक्त कर के उन्हें सभ्य बनाया जाय. इसी विस्तारवादी सोच के कारण इस्लाम का इसाइयत से जो यहूदी धर्म से निकली एक धारा है का संघर्ष हुआ. बाकायदे युद्ध हुए और भयंकर धन जन की हानि हुयी. सैकड़ों मस्जिदें ज़मींदोज़ हुयी सैकड़ों गिरजे टूटे. आज भी अवचेतन में वह विवाद दोनों ही धर्मावलम्बियों के जेहन में ज़िंदा है. अप तो धर्म की मीठी और आकर्षक खोल के भीतर राजनैतिक स्वार्थ की कडवी दवा भी है. यह धर्म के प्रति अंध आस्था का भयावह दुष्परिणाम है. सुन्नीवाद इसी पैन इस्लामिज्म की एक शाखा वहाबिज्म का विस्तार है.
 
-vss

Sunday 22 June 2014

राष्ट्र भाषा हिंदी पर प्रसंगवश...........विजय शंकर सिंह



जिन राजनीतिक कारणों से हिंदी का विरोध तमिलनाडु में किया जा रहा है, उन्ही राजनीतिक कारणों से इसे पुनः प्रतिष्ठापित करने की बात भी सरकार कर रही है. कोई भी भाषा राज संरक्षण तो पा सकती है पर उसका विकास केवल सरकार के चाहने भर से नहीं हो सकता. हिंदी भारत सरकार के सभी कार्यालयों और प्रतिष्ठानों में स्वीकृत भाषा है. हर गजट, पत्र, नोटिफिकेशन अंग्रेज़ी के साथ साथ हिंदी में भी छपते है. बार बार हम हिंदी हिंदी की बात कर के यही वातावरण बना देते हैं जैसे कि इसके पहले हिंदी थी ही नहीं. इसकी तुरंत प्रक्रिया तमिलनाडु में होने लगती है. मैं आज तक यह समझ नहीं पाया हिंदी से तमिलनाडु को इतनी दिक्कत क्यों है. लेकिन एक बात समझ में आती है कि दिक्कत भाषा से नहीं भाषा की राजनीति से है. और राजनीति की प्रतिक्रिया तो होगी ही.

अभी कुछ दिनों पहले एक खबर से पता चला था कि तमिलनाडु में भी एक वर्ग हिंदी सीखने को आतुर है. वह उन स्कूलों में अपने बच्चे नहीं भेज रहा है जहां हिंदी वैकल्पिक भाषा के रूप में नहीं है. यह मोह किसी भाषा के कारण नहीं ज़रूरतों के कारण है. वहाँ के लोगों को लगता है कि अगर उन्होंने हिंदी नहीं पढ़ा तो देश की मुख्या धारा से अलग थलग हो जायेंगे. यही भय उन्हें हिंदी की तरफ ले जा रहा है. बहुत से तमिलभाषी जो उत्तर भारत में कार्यरत है हिंदी बहुत अच्छी बोल लेते हैं. लिख भी लेते हैं. पढ़ भी. लेकिन ढेर सारे उत्तरभारतीय जो तमिल नाडू में काम कर रहे हैं, वह तमिल के कुछ शब्द भले समझ लेते हों लेकिन बोलते बहुत ही कम है. वे अपना काम अंग्रेज़ी में चला लेते हैं. या टूटी फूटी हिंदी में. उनका काम चल जाता है, इस लिए वे तमिल सीखना नहीं चाहते. इसके विपरीत जो तमिल भाषी उत्तर भारत में कार्यरत है अच्छी हिंदी बोलते हैं क्यों कि उन्हें लगता है कि इस से वे अपना काम बखूबी चला लेंगे.

तमिल नाडू में हिंदी विरोध भाषा का ही विरोध नहीं है. इसकी जड़ें सांस्कृतिक अलगाववाद में है. एक समय स्वतंत्र द्रविड़स्तान की मांग ने भी बहुत जोर पकड़ा था. इसका कारण आर्य संस्कृत का विरोध ही रहा है. द्रविड़ कड़गम आन्दोलन इस का ध्वजा वाहक रहा है. पेरियार रामास्वामी नायकर के नेत्रित्व में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और आर्य संस्कृति के विरोध में वहाँ व्यापक आन्दोलन चला. यह मूलतः समाज सुधार आन्दोलन था. धीरे धीरे सब सामान्य हो गया. हिंदी का विरोध वहा एक राजनैतिक एजेंडे की तरह है, जैसे मराठी माणूस की बात महाराष्ट्र में शिव सेना करती रहती है.

भाषा का रोज़गार से जुड़ना ज़रूरी है. जो भाषाएँ रोज़गार से नहीं जुडती हैं, वे धीरे धीरे संकुचित होने लगती है. संस्कृत को ही लीजिये. आज संस्कृत रोजगार से दूर है, तो उसकी तरफ कोई रुझान नहीं है. जब कि जितना इस भाषा में अब तक लिखा जा चुका है, वही इसे आज भी सिरमौर बनाए हुए है. किसी ज़माने में जब मुस्लिम राज वंशों की स्थापना हुयी तो, फारसी यहाँ की भाषा बनी. फारसी को राजभाषा बनाने के लिए कोई प्रस्ताव न तो पास किया गया था, और न ही उसका विरोध हुआ था. बस राजकार्य उस भाषा में होने लगा. लोगों को उसे इसलिए उस भाषा को पढना पड़ा कि बिना उसे जाने उन्हें न नौकरी मिलती थी न सम्मान तो उन्होंने उसे पढ़ा पढ़ाया और अपनाया.

अँगरेज़ जब आये तो अंग्रेज़ी ने वही स्थान ले लिया जो मध्य युग में फारसी का था. उस समय फारसी जानना उपहास का कारण बन गया. एक मुहावरा भी संभवतः उसी समय से प्रचलित हुआ होगा, पढ़ें फारसी बेचे तेल, यह देखो कुदरत का खेल ! यही बात संस्कृत के विद्वानों के लिए भी मजाक में कही जाती है कि वह पोंगा पंडित है. इस प्रकार जब संस्कृत रोज़गार देने में सक्षम रही, तो संस्कृत, जब फारसी रोज़गार देने में सक्षम रही तो फारसी और जब अंग्रेज़ी रोज़गार देने में सक्षम है तो अंग्रेज़ी का प्रचार और वर्चस्व बना है. इसमें किसी भाषा के साथ कोई भावनात्मक लगाव नहीं है बस आवश्यकता आविष्कार की जननी है का ही भाव है. यही भाव तमिलनाडु के एक वर्ग को हिंदी के पक्ष में खड़े किये हुए है.

हम वैसे हिंदी की बात हम हिंदी दिवस, तथा अन्य अवसरों पर खूब करते है, पर जब उन जगहों पर जहां हिंदी समझने वाले बहुतेरे हों तो भी हाँ अंग्रेज़ी में बात करते है. यह एक दास मनोवृत्ति है, एक प्रकार की हीन ग्रंथि है. हम यह जतलाना चाहते है कि अंग्रेज़ी हम भी जानते है. अगर हम सिर्फ इतनी कृपा करें कि जहां हिंदी खूब बोली और समझी जाती हो वहाँ धड़ल्ले के साथ हिंदी का प्रयोग करें तो हिंदी का भला ही होगा. हिंदी के पक्ष में खड़े कितने नेताओं के बच्चे हिंदी स्कूलों में ही पढ़ें है ? इसका कोई आंकड़ा होगा तो उसका अध्ययन बहुत रोचक होगा. नयी पीढी के बच्चो से पूछिए उनके पसंदीदा लेखक कौन हैं ? वे हिंदी के नहीं अंग्रेज़ी के लेखकों और उनकी कृतियो के नाम बताएँगे. यह उनका दोष नहीं है, दोष हमारा है जिन्होंने उनके मन में हिंदी भाषा और साहित्य के बारे में अनुराग ही नहीं पैदा किया. अपना भाव बढाने के लिए हमें भी कुछ लेखकों और उनकी कृतियों के नाम याद रखने पड़ते हैं, भले ही उन्हें हम पढ़े न हों या पढ़े भी हों तो अनुवाद के माध्यम से !

हम अक्सर जापान और चीन का उदाहरण देते है कि वे अपनी भाषा को लेकर बहुत संवेदनशील होते हैं. इसका सबसे प्रमुख कारण उनका कभी गुलाम न होना भी रहा है. जापान पर किसी देश ने कभी राज नहीं किया. चीन भी उस तरह से जिस तरह से हम विभिन्न कालों में विभिन्न भाषाई शासकों के शासन में रहे हैं, वह कभी नहीं रहे है. इसी लिए उनकी भाषाई अस्मिता का क्षरण नहीं हो पाया. हम में से उर्दू लिपि में शायद बहुत कम लोग उर्दू पढ़ पायें. पर उर्दू के शेर सबसे अधिक लोकप्रिय हैं और हम धड़ल्ले के साथ इनका इस्तेमाल करते हैं. उर्दू हम किसी शासनादेश के तहत नहीं पसंद करते, बल्कि वह पसंद आती है इस लिए हम उसे पसंद करते हैं. हिंदी फ़िल्में वहाँ भी बहुत लोकप्रिय हैं, जहां लोग हिंदी बिलकुल नहीं बोलते है. इस तरह जो भाषा, रोज़गार से जुड़ेगी, मन को छुएगी, जिसमें सम्प्रेषण की क्षमता होगी वह प्रगति करेगी.

हिंदी का विरोध भी उतना ही राजनैतिक है जितना हिंदी को लेकर सरकार का नया दृष्टिकोण. मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना के इस संस्कृति में एक भाषा, एक धर्म, एक देव, की बात करना एक भ्रम फैलाने जैसा है !
-vss.


Friday 20 June 2014

Homi Bhabha's bunglow auctioned....... होमी भाभा का बंगला बिक गया. ..... विजय शंकर सिंह

                                
(होमी जहांगीर भाभा , जन्म , 30 अक्टूबर 1909 , मुंबई , तब का बॉम्बे, मृत्यु 24 जनवरी 1966 , माउंट ब्लैंक , फ्रांस में एक विमान दुर्घटना में , वह एटॉमिक एनर्जी कमीशन ऑफ़ इंडिया , टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च, कैवेंडिश लेबोरेटरी , इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस , ट्रॉम्बे एटॉमिक एनर्जी इस्टैब्लिशमेंट से जुड़े रहे।  इनकी शिक्षा , एलफ़िन्स्टन कॉलेज , रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस , और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हुयी। 1942 में एडम्स पुरस्कार , 1954 में पद्म भूषण से सम्मानित किये गए।)


होमी भाभा का बंगला बिक गया. दुनिया की सारी सभ्यताओं और संस्कृतियों में अतीत को याद करने वालों की कोई सूची बने तो शायद हम प्रथम स्थान पर हों. लेकिन जब विरासत बचाने का अवसर आता है तो हम सिर्फ शोर मचाते हैं. भाभा भारत के आणविक युग के जनक थे. इस क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय सफलता भी अर्जित की है. अखबारों से पता चलता है कि सी एन आर राव, जो खुद ही एक महान वैज्ञानिक और भारत रत्न से सम्मानित हैं ने प्रधान मंत्री जी से मिल कर इस बंगले को बचाने के लिए प्रयास करने का अनुरोध किया था. महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री ने भी यह बँगला न बिके इसके लिए भी कुछ प्रयास किया था. लेकिन जो भवितव्य था वह हुआ. बताते हैं कि गृहस्वामी की कोई विल थी जिसके तहत यह बँगला बिका. 

हो सकता है, कोई वैधानिक अड़चन रही हो. पर इस बंगले का बहुखंडीय कंकरीट के अरण्य में रूपांतरण सब को अखरेगा. धरोहर केवल राजनीति और वह भी सत्ता से जुडी राजनीति के लिए नहीं होती. जिस ने भी, जिस किसी भी क्षेत्र में कुछ कालजयी रचनात्मक कार्य किया है वे सब हमारे पूज्य हैं और उनकी कृतियाँ, उनसे जुडी स्मृतियाँ, सब हमारी धरोहर है. और धरोहर बचा कर रखना उस महान पुरुष के लिए केवल कृतज्ञता ज्ञापन ही नहीं बल्कि भावी पीढी को यह आभास भी कराना कि उनके पुरखे कितने विलक्षण थे. लेकिन जब स्मारकों की बात होती है तो इस वर्ग में निराशा ही दिखती है. जिन्होंने राजनीति में सेवा के नाम पर संकीर्ण और भ्रष्ट राजनीति की, स्मारक उनके भी बने. लेकिन जो अपनी रचनाओं से आज भी जन मानस पर राज कर रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे उनके कोई स्मारक नहीं है. हैं भी तो उपेक्षित और उजाड़. 



होमी भाभा का बँगला ,जो 17,990 वर्ग फ़ीट  है मुंबई में मालाबार हिल में स्थित है इसमें नेशनल सेंटर फॉर परफार्मिंग आर्ट्स का केंद्र है। भाभा का इसमें 1 / 3 का हिस्सा था। उनकी मृत्यु  बाद वह भाग उनके भाई जमशेद जी टाटा को चला गया था। टाटा की वसीयत के अनुसार इस बंगले को नीलाम किया गया और जो धन राशि मिलेगी वह एन  सी पी ए के उन्नयन में लगाया जाएगा। कुल सात बोली बोलने वाले थे।  सबसे ऊंची बोली 372 करोड़ की हुयी। )

 
एक बार मैं जब एस पी बांदा था तो राजापुर गया था. तुलसी दास का जन्म यहीं हुआ था. अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के बावजूद भीउन्होंने प्रसिद्धि के जिस शिखर को स्पर्श किया यह आप सब जानते हैं. यह ज्योतिष के परम्परागत अवधारणा कि मूल में जन्म अशुभ होता है को एक चुनौती भी थी. हिंदी साहित्य और भारतीय अस्मिता में तुलसी दास का क्या स्थान है यह उल्लेख करने की ज़रुरत नहीं है. राजापुर उन्ही का जन्म स्थान है. यमुना के किनारे बसा यह गाँव चित्रकूट जिले में आता है. वहाँ मैंने किसी से पूछा कि तुलसी दास जी का घर कहाँ था. कोई बता नहीं पाया. चार सौ साल में कितना परिवर्तन हुआ होगा. यमुना ने भी हो सकता हो करवटें बदलीं हों. लेकिन यह अनभिज्ञता मुझे भीतर तक कहीं कचोट गयी. वहाँ एक स्मारक बना हुआ है. एक बड़ा सा हॉलउसी में शीशे की आलमारी में बंद मानस के कुछ पन्ने. तुलसी की एक औपचारिकता का निर्वाह करती हुयी निस्तेज प्रतिमाऔर धूल से अटा हुआ वातावरण. ना कोई इंतज़ाम कर्ता न कोई दर्शक. होना तो यह चाहिये था कि यह स्थान उत्तर प्रदेश के पर्यटन मानचित्र पर प्रमुख स्थान पाता. लेकिन यह तब उपेक्षित था. तब के जिला मैजिस्ट्रेट से आग्रह करने पर और स्थानीय थानाध्यक्ष को हिदायत देने पर कुछ स्थिति सुधरी. अब क्या हाल हैयह पता नहीं. मेरा उधर जाना पिछले सात सालों से हुआ भी नहीं. 

यही हाल बनारस में प्रेमचंदप्रसादऔर भारतेंदु के भवनों का है. लमही में स्मारक ज़रूर हैपर वह प्रेमचंद के स्तर का नहीं है. भारतेंदु जिन्हें आधुनिक हिंदी का जनक कहा जाता है के घरजो बनारस में चौक के पास स्थित एक गलीजिसे ठठेरी गली कहा जाता हैमें स्थित हैके बाहर सिर्फ एक नाम पट्टिका लगी हैजो यह बताती है कि वह यहीं पैदा हुए थे. कामायनी जैसी कालजयी रचना देने वाले प्रसाद जी का कोई स्मारक बनारस में हो तो मुझे पता नहीं. चौक थाने के पीछे जहां कहा जाता हैबैठ कर उन्होंने कामायनी लिखी थीअब वहाँ कूडा फेंका जाता है. यही हाल निराला के घर दारागंज में जो इलाहाबाद में ह,ै का है. 

ये रचनाकार किसी स्मारक के मस्ध्यम से स्मृतियों में नहीं रहते हैं. वे जीवित रहते हैअपनी रचनाओं और अपनी कृतियों के कारण. आज वाल्मीकिराजनैतिक कारणों से घोषित अवकाश के कारण नहीं जीवित हैंवे जीवित हैं राम कथा पर अपने ग्रन्थ रामायण के कारण. बात केवल तुलसीप्रेमचंदऔर भारतेंदु की ही नहीं है. आप दिल्ली में निजामुद्दीन चले जाइये. थाने के बगल से एक रास्ता हजरत निजामुद्दीन की दरगाह को जाता है. बीच में ही ग़ालिब चिर निद्रा में लीन हैं यहाँ उनकी मज़ार है. उसी के बगल में ग़ालिब एकेडेमी है. उनके पास ग़ालिब के दीवान और पत्रों के संग्रह की कुछ प्रतियों के अलावा कुछ भी नहीं है. ग़ालिब ने बहुत सी रचनाएँख़तगद्य आदि लिखे. न तो वहाँ इनका कोई कतेलाग हैन कोई सूची. जब कि वह बहुत पहले रहे हों ऐसी बात भी नहीं है. जब कि ग़ालिब उर्दू के महानतम शायरों में से एक हैं. 

यह तो मैं उत्तर प्रदेश और दिल्ली के एक क्षेत्र विशेष के साहित्यकारों की बात कर रहा हूँ. वैसे ही बिहार में विद्यापति हैदिनकर हैंदक्षिण भारत में सुब्रमण्यम भारती है. बंगाल में रवींद्र नाथ टैगोर है. मुझे नहीं पता कि अन्य भाषाओं के महान साहित्यकारों के स्मृति शेष को सुरक्षित रखने के क्या उपाय किये गए हैं. हाँ गुरुदेव रवीन्द्र से जुड़े कई प्रभावशाली स्मारक बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में भी हैं. इनके स्मारक भी बनें तो उनकी कृतियों को ही ध्यान में रख कर बनाया जाय.
दर असल देश में महानता का पैमानाराजनीति से जुड़ गया है. मैंने कहीं पढ़ा था कि इंग्लैंड में शेक्स पीयर से जुडी सारी सामग्री ढूंढ ढूंढ कर संजो कर एक स्थान पर राखी गयी है. रूस में टॉलस्टॉय से जुड़े स्मारक है पर हम जो स्वघोषित जगद्गुरु हैंवह कुछ नहीं कर पाते हैं. करते भी तो हैं तो बस उन्हें जाति धर्म के कठघरे में बाँट कर एक छुट्टी की घोषणा. हम हर चीज़ को जब राजनीतिक नफे नुव्सान से सोचेंगे तो विरासतों पर धूल ही उडेगी. वाल्मिकीऔर रैदासकिसी दल विशेष के शासनकाल में इस लिए प्रासंगिक और याद आने लगते हैं कि वे एक जाति विशेष में पैदा हुए थे. यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. कानपुर में वैश्य एकता मंच के एक समारोह् में गांधी की तस्वीर देखी तो मैंने पूछा किइस तस्वीर का क्या प्रयोजन है उत्तर मिला वह अपनी बिरादरी के थे. वे याद भी कर रहे हैं गाँधी को तो इस लिए कि वे उनकी बिरादरी के थे. न कि उन मूल्यों के लिए जिनके लिए पूरी दुनिया उनका सम्मान करती है. महापुरुष किसी भी जाति या धर्म की निजी संपत्ति नहीं होतें हैं. वे समग्र मानव जाति के लिए होते हैं. उनकी उपलब्धियां वैश्विक कल्याण के लिए होती है. 
वैज्ञानिकों की तो बात ही अलग है. आर्यभटवाराहमिहिर, , सुश्रुतचरक की विरासत लिए हम कितने महान वैज्ञानिकों के योगदान को जानते हैंजिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान किया है. सर सी वी रमणरामानुजम जे सी बोसजैसे अनेक महान वैज्ञानिक चुपचाप राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे रहे. एक तो लीक से हट कर उनके शोध और दुरूह तथा शुष्क विषयइन्हें समाज से और अलग कर देता है. कम से कम इनकी धरोहरइनकी खोजेंइनके योगदान को याद रखने के लिए हम कुछ न कुछ कर ही सकते हैं. आज अगर भाभा का बंगला एक स्मारक में बदल गया होता. वहाँ उनके जीवन से जुडी चीज़ें करीने और विस्तार से संजो कर रखी गयी होतीं. उनके नाम पर वहाँ आणविक विज्ञान में एक शोध संस्थान बना होता तो न सिर्फ उनकी यादें अक्षुण रहतीं बल्कि भावी पीढी अनुप्राणित भी होती. पर यह सब अब काश है. 

अंत में एक अनुत्तरित प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कौंध रहा है. भाभा किसी राजनैतिक परिवार या ऐसे परिवार या ऐसी जाति से जुडे होते जो सामाजिक रूप से प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होती तो क्या इतनी खामोशी से उनका बँगला बिक जाता ? 
-vss.