Friday 28 March 2014

शाजिया इल्मी का मंदिर प्रवेश और विवाद - विजय शंकर सिंह



शाजिया इल्मी ने मंदिर में क्या प्रवेश किया, एक फतवा आ गया. फतवा, तो दरगाहों के खिलाफ भी आ चुका है. 

जो जकड़ता है, वह धर्म नहीं है. जो संकीर्ण बनाता है, वह मार्ग नहीं है. जो पंख फैलाने से रोक दे वह गगन नहीं है. जो प्यास बुझाने में भेद भाव करे वह जल नहीं है. 

धर्म ईश्वर को समझने का एक मार्ग है. उसे पाने का नहीं . जो सर्वव्यापी हो वह खो नहीं सकता, और जो खो नहीं सकता, उसे पाने का कोई औचित्य नहीं है. पूजा और उपासना की विधि अलग अलग हो सकती है. प्रार्थना के शब्द भी अलग अलग भाषाओं के हो सकते हैं. पर सब उसी विराट और अनंत की स्तुति ही है.

स्वार्थी और धर्म पर एकाधिकार फैलाए हुए, कुटिल पौरोहित्यवाद से बचें. हालाँकि विडम्बना यही है कि सारे धर्म इस तंत्र से ग्रस्त हैं !!


मेरे एक मित्र ने टिप्पणी की है कि विधर्मियों का मंदिर प्रवेश न हो तो अच्छा है. मेरा उनकी इस टिप्पणी पर निवेदन है कि, आज देश में व्यापक धर्मांतरण , मुस्लिम काल में इस्लाम में, और अंग्रेजों के समय में में इसाइयत में हुआ है, उसका कारण खुद को कच्छप के खोल में समेट लेना रहा है. भला तो भक्ति आन्दोलन का, जिस के कारण संस्कृतियों के आदान प्रदान से जो धारा बही वह उसी पौरोहित्यवाद के विरुद्ध बही और सनातन धर्म का एक नया स्वरुप सामने आया. आज भी जब आप पूजा पर बैठते हैं, और संकल्प के लिए अंजुरी में जल लेते हैं तो यही कहा जाता है कि अपने इष्ट का स्मरण करे. आप का इष्ट आप जानें और वह कोई भी हो सकता है. मनुष्य स्वभावतः मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना है. सब एक ही को मानें और एक ही को पूजें यह सम्भव नहीं है. इसी लिए जब भी धर्म की अवधारणा हुयी है, उसके साथ ही उसका विखंडन भी शुरू हो गया है. सनातन धर्म के दार्शनिकों को इस तथ्य का अनुमान था. इसी लिए उन्होंने किसी एक विचार, किसी एक देवता और किसी एक पूजा पद्धति की बात ही नहीं की. उन्होंने साफ़ कहा, ‘ आ नो भद्र ऋतवो यन्तु विश्वतः.’. विश्व के समस्त सद्विचारों को, मेरे मस्तिष्क का आमंत्रण है. यह ऋचा ऋगवेद की है. 

विधर्मियों के मंदिर प्रवेश निषेध की हम क्या बात करें. आज़ादी के कुछ समय पहले तक, अछूतों का मंदिर प्रवेश निषेध था. इस के लिए बाकायदा आन्दोलन भी किया गया. हम धर्मांतरण की बात करते हैं और इसे क़ानून से रोकने की बात करते हैं. क़ानून आप को सड़क पर ढंग से चलना सिखा दे, यही बहुत है. कोई भी क़ानून हमें अपना धार्मिक मार्ग चुनने की आज़ादी से वंचित नहीं कर सकता. हिन्दू धर्म का दर्शन सबको साथ लेकर चलने का दर्शन है. आप अद्वैतवादी हो, बहुदेववादी हों, निरीश्वरवादी हों, आर्य समाजी हो, या घोर कर्मकांडी, या फिर नास्तिक, जो भी आप हों वह कहीं बाधा नहीं पहुंचाता. वह सब कुछ समेटे है. 

यह सारा जाल बट्टा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए इस जटिल और कुटिल पौरोहित्यावाद ने बुना है. लेकिन धर्म का स्वरुप ऐसा है कि हर कठिन परीक्षा  में यह कुंदन सा निखरता है. 
-vss

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