Sunday 9 February 2014

"आवाज़ ए खलक को नक्कारा ऐ खुदा समझो !!"


दिल्ली लोकपाल बिल पर बी जे पी और कांग्रेस द्वारा यह तर्क दिया जा रहा है कि यह बिल असंवैधानिक है. हो सकता दोनों दलों की राय सही भी हो. और यह भी हो सकता है दोनों ही दल ऐसा राजनैतिक कारणों से कह रहे हों. बिल दिल्ली की विधान सभा में लाया जाएगा . उस पर वैधानिक प्रक्रिया के अनुसार बहस होगी ,होगी फिर वोटिंग होगी और तब वह पास होगा या निरस्त हो जाएगा. लेकिन जैसा माहौल इस बिल के खिलाफ दोनों ही दल बना रहे हैं उस से लगता है कि दोनों ही इस बिल के खिलाफ हैं. अगर बिल के और उसके उद्देश्य की मूल भावना के ही खिलाफ हैं तब तो कुछ कहने और सुनने का मतलब ही नहीं है. और अगर संवैधानिक नियमों की कोई बाधा है तो इसका समाधान निकाला जा सकता है.
 
पिछले 65 सालों से कांग्रेस सत्ता में रही है. और बीच में साल के लिए बीजेपी रही है. उन वर्षों में दोनों दलों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सिवाय ज़बान दराजी के कोई ठोस काम नहीं किया. यह तो अन्ना हजारे का आन्दोलन और उस में जनता की सक्रिय भागीदारी बड़ी अदालतों की सक्रियताआर टी आई कार्यकर्ताओं का जुझारूपन था कि देश में एक वातावरण बना और देश इस बुराई के खिलाफ एकजुट हुआ. किसी प्रकार कसम खाने के लिए एक लोकपाल बिल पास कर के .दोनों ही दल पिसान पोत के भंडारी बन गए.

दोनों दलों को इस बिल को विधान सभा में पेश करने देना चाहिए और उस पर चर्चा भी करना चाहिए. ताकि जनता यह जाने कि इस बिल के प्रति दोनों दलों की क्या राय है.अगर यह बिल संवैधानिक मापदंडों के विपरीत है तो इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है और अदालत जो फैसला करे उसे सब को मानना चाहिए. 

कांग्रेस का यह कार्यकाल घोटालों से भरा रहा है. सभी बड़े घोटाले इसी कार्यकाल में हुए और इन घोटालों को लेकर संसद अक्सर ठप रही. बीजेपी सिरफ सरकार का इस्तीफा ही नैतिक आधार पर मांगती रही. अगर सरकार में नैतिक बल होता तो क्या वह ऐसे घोटालों में लिप्त रहती लेकिन बीजेपी ने कभी भी अविश्वास प्रस्ताव लाने का या खुद कोई बड़ा जन आन्दोलन छेड़ने का प्रयास नहीं किया. जब कि मुख्या विपक्षी दल होने के नाते यह उसका दायित्व था . शायद उनके अवचेतन में येदुरप्पा और ऐसे ही अन्य प्रकरण भी रहे होंगे. 

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आप सरकार के खिलाफ जिस तरह से दोनों ही दल कुछ मामलों में साथ साथ नज़र आ रहे हैं यह महज संयोग है. या 'आपकी त्वरित सफलता के प्रति ईर्ष्या है या परम्परागत तरीके से चली आ रही कभी सुविधा. कभी दुविधा और कभी वादा की राजनीति है यह सिर्फ भविष्य ही बताएगा.

जो भी जन सरोकार से जुड़े मसले हों उनका समाधान जनता चाहती है. और वह समाधान जो भी ले कर आयेगा जनता उस के साथ ही रहेगी. जनता किसी के प्रेम में उसे सत्ता नहीं सौंपती है बल्कि वह उस से बेहतर शासन और साफ़ सुथरा काम की अलेक्षा रखती है. और जब उसे लगता है कि उसे ठगा जा रहा है या ठगा गया है तो वह उसे कूड़ेदान में दाल देती है. 1977 का चुनाव परिणाम इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जिस में सब से ताक़तवर प्रधान मंत्री खुद अपना चुनाव हार गयी थी.

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