Tuesday 11 February 2014

'' वैदिकी हिंसा , हिंसा न भवति ! ''




अचानक संविधान की बहुत फ़िक्र हो गयी है, सरकार और विपक्ष दोनों को. दोनों बड़े दलों को लगता है अगर जन लोकपाल बिल दिल्ली विधान सभा में पेश हुआ तो संवैधानिक संकट खडा हो जाएगा . जब कि कानूनी जानकारों का मानना हैं की संवैधानिक प्रावधान ऐसा करने को कहीं मना करते हैं. लेकिन बाधा है तो 2002 का केन्द्रीय गृह मंत्रालय का एक प्रशासनिक आदेश. जिस के अनुसार दिल्ली विधान सभा में पेश होने वाले बिलों पर केंद्र सरकार का अनुमोदन ज़रूरी है. इसी पत्र का उल्लेख करते हुए उप राज्यपाल ने इस बिल को विधान सभा में प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी. आदेश संवैधानिक है या नहीं इस पर तत्कालीन सोलिसिटर जनरल सोली सोराब जी ने गृह मंत्रालय के उक्त आदेश को असंवैधानिक माना था. लेकिन जब तक वह आदेश किसी सक्षम न्यायालय या संसद द्वारा असंवैधानिक घोषित न हो जाए या उसे सरकार वापस न ले ले वह प्रभावी रहेगा.

इस समय संविधान की चिंता जिन दलों को सता रही है उन्होंने भी संविधान की अवहेलना और निरादर अपना हित साधने के लिए सुविधानुसार किया है. मैं सिर्फ दो उदाहरण इस प्रकार के अवहेलना और निरादर के प्रस्तुत कर रहा हूँ.

1975 में कांग्रेस के शासन में आपात काल लगाया गया था. तत्कालीन राष्ट्रपति को दबाव में ले कर, सारी संवैधानिक मान्यताओं को दर किनार करते हुए े, बिना पूरी कैबिनेट की सहमति लिए सिर्फ और सिर्फ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इंदिरा गाँधी के चुनाव को अवैध घोषित करने के निर्णय की प्रतिक्रया स्वरुप देश में अवैध तरीके से आपात काल की घोषणा की गयी थी. 


तब क्या संविधान का चीर हरण नहीं था ?
आपात काल की घोषणा के बाद जब संसद का सत्र इसके अनुमोदन हेतु आहूत किया गया तो सी पी एम् के संसदीय दल के नेता ए के गोपालन ने विपक्ष की तरफ से मोर्चा सम्भाला. उस समय अन्य विपक्षी नेता या तो जेल में थे या भूमिगत हो गए थे. गोपालन का वह भाषण भारत के संसदीय इतिहास के सर्वाधिक प्रभाव पूर्ण भाषणों में से एक था.

यह तो हुयी कांग्रेस की बात. अब ज़रा पार्टी विथ द डिफरेंस की भी सुन लीजिये. राम मंदिर आन्दोलन के समय , जब 1991 में इसे मुख्य मुद्दा बना कर . भाजपा चुनाव में उतरी थी तो उत्तर प्रदेश का माहौल राजनीतिक विवेक के बजाय भावनात्मक हो गया था. राम से किसी का बैर नहीं था . हो भी नहीं सकता था . भाजपा पहली बार अपने दम पर जीत कर आयी थी. उसके बाद बीस साल बीत चुके हैं अब तक उत्तर प्रदेश में दुबारा उस की सरकार अपने दम पर नहीं बन पायी.

राम मंदिर आन्दोलन और तेज हुआ . विश्व हिन्दू परिषद् और इस से जुड़ संगठन ेअयोध्या स्थित विवादित ढाँचे के स्थान पर कार सेवा करना चाहते थे. श्री कल्याण सिंह उस समय मुख्य मंत्री थे . उन्होंने इस पर कोई रोक नहीं लगाई. वह लगा भी नहीं सकते थे. मामला सर्वोच्च न्यायालय गया . अदालत ने सांकेतिक कारसेवा की अनुमति दी. सरकार ने विवादित ढाँचे को सुरक्षित रखने का आश्वासन एक लिखित हलफनामे पर दिया. यह हलफनामा सुप्रीम कोर्ट ने माँगा था. ु

6 दिसंबर 1992. अयोध्या में पर्याप्त पुलिस बल मौजूद था. कारसेवकों से पूरी अयोध्या पटी पडी थी. भाजपा के कुछ बड़े नेता भी वहाँ थे. कहा जाता है सरकार ने गोली चलाने को मना किया था. सरकार का यह आदेश अपने आप में ही गलत था. मजिस्ट्रेट और पुलिस मौके को देखते हुए अपने विवेक से ऐसी परिस्थितियों में कितना बल प्रयोग किया जाय , इस का निर्णय लेते हैं . हमने तो यही पढ़ा था क़ानून की किताबों में पर हुआ इस का उलटा वहाँ.

भीड़ उत्तेजित हुयी. और 400 साल पुरानी इमारत ढह गयी. कहीं शौर्य दिवस मना कहीं शोक दिवस. हलफनामे का वादा, इमारत बचाने का सर्वोच्च न्यायालय को दिया हुआ आश्वासन , सब ध्वस्त हो गया. तब संविधान की याद और उस की गरिमा किसी को याद नहीं आयी ? संविधान या धर्म से जुड़े क़ानून, इन सब का उपयोग स्थान, व्यक्ति, और परिथितियों के अनुसार ही होता है.

आज इन दोनों दलों को, जिस में एक परम सात्विक, परम नैतिक और संस्कृति का रक्षक होने का दावा करता है. तो दूसरा. जिस के पास आज़ादी दिलाने का स्थायी कॉपी राईट है, जन लोकपाल बिल पर संविधान का शील भंग होते देख रहे हैं. संविधान स्थायी नहीं है. समय, आवश्यकताएं, और परिस्थितियों के अनुसार इसमें संशोधन हुए हैं और आगे भी होंगे.

एक गलती , दूसरी गलती के लिए आधार नहीं बन सकती . अतः दिल्ली सरकार को चाहिए कि वह जो भी कदम उठायें नियमानुकूल ही उठायें. नियम अगर विधि विरुद्ध हैं तो उन्हें अदालतों में चुनौती दी जा सकती है. लेकिन जब तक नियम बदले न जाएँ, नियम तो रहेंगे ही. नियमों के अनुरूप अगर जन लोकपाल बिल पास न हो पाया तो वह बस्ता ए खामोशी में चला जाएगा. इस से प्रचार भले ही मिल जाए पर जन लोकपाल का उद्देश्य बाधित हो जाएगा.

इस लेख का शीर्षक भारतेंदु के एक व्यंग्य नाटक से लिया गया है. सुविधानुसार और स्वार्थानुसार क़ानून, और प्राविधान समर्थ लोग अपने हित में बदल ही लेते हैं. वैसे भी क़ानून सिर्फ कमजोरों के लिए है. 
-vss.



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