Sunday 26 January 2014

गणतंत्र का संकल्प...

अक्सर हम सड़ रहे लोकतंत्र को इंगित कर के अपनी कुंठा निकालते रहते हैं .सुबह से शाम तक कुंठित और चिर असंतुष्ट मानसिकता लिए. उन सब को कोसते रहते हैं जिन्होंने देश के लिए कभी न कभी. कहीं न कहीं. कुछ किया है. आज का पर्व हमारी सहभागिता का पर्व है . हमारी अस्मिता का पर्व है. हमारी जिजीविषा का साक्षी है यह पर्व.
दुनिया में कुछ भी पूर्ण और सर्वथा उपयुक्त नहीं है . लोकतांत्रिक शासन प्रणाली भी इस का अपवाद नहीं है .स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बाद से जितने  कदम हमने बढाए हैं. ऐसा नहीं कि वे सारे कदम मखमल पर ही पड़ें हैं .कहीं सपाट और प्रसन्न कर देने वाले राजपथ हैं तो कहीं बेहद गड्ढों भरी डाइवार्जन लिए मार्ग . पर गतिशीलता हमारी कभी थमी नहीं. अवरोध तो आये पर हम अवरुद्ध नहीं हुए.
संसार में अब तक जितनी भी शासन व्यवस्था का प्रयोग हमने देखा है . उनमें लोकतंत्र अपनी सारी कमियों के बावजूद सर्वाधिक उपयुक्त प्रणाली है . हम खुद मुख़्तार हैं और अपना निजाम खुद चुनते हैं. अजीब विडम्बना है. चुनते भी हमी हैं और चुन कर उनसे निराश और कुंठित भी हमीं होते हैं. ऐसा सिर्फ इसलिए है क़ि चुनते वक़्त न हम देश देख पाते हैं और न भविष्य का आकलन कर पाते हैं. जिधर बह चली हवा . उधर बह जाते हैं.
हवाएं कब किसी की हुयी हैं ? गण तंत्र हमारा प्रतिविम्ब है . हम जैसा इसमें देखना चाहेंगे वैसा दिखेंगे . कुंठा इस स्तर की हो जाती है कि कुछ मित्र इसके बदले सैनिक शासन को बेहतर मानने लगते हैं. पर यह सारी बहसें आरामदायक  कमरों में होती हैं. और वहीं इसका समाधान भी ढूंढा जाता है. साथ ही देश की सारी प्रगति पर मर्सिया पढ़ते हुए इसे परम दुर्भाग्य की संज्ञा दी जाती है. पर जब इसी लोकतंत्र में सरकारों के गढ़ने . बदलने. और सुधारने का अवसर आता है तो हम भावनाओं के ज्वार में बहते हुए असल चुनौतियों को देखते हुए बहते चले जाते हैं. और जब ज्वार उतरता है तो फिर वही कुंठा . वही असंतोष . वही क्षोभ घेरने लगता है . गर्द चेहरे पर जस की तस जमी रहती है, गाली आइना झेलता है !
महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने कल एक बात सही कही. अराजकता देश के लिए ठीक नहीं है. इस कथन से कोई भी असहमत नहीं हो सकता है. पर ऐसी अराजकता की ज़रुरत क्यों पड़ती है ? क्यों जन समस्याओं के सारे समाधान उपलब्ध होने के बाद भी लोगों को सडकों पर उतरना पड़ता है ? क्यों लोगों को क़ानून का पालन कराने के लिए क़ानून तोड़ना पड़ता है ? याद कीजिये जे पी आन्दोलन का समय. मैं उस समय बी एच यू में पढता था. पढ़ाई का सत्र. नगर की क़ानून व्यवस्था. सब अस्त व्यस्त हो गया था. जे पी पर भी इलज़ाम लगा था कि वह अराजकता फैला रहे हैं. वह सेना और पुलिस को भड़का रहे हैं.  आन्दोलन जब बहुत गहरे पैठ जाता है तो वह अराजक दिखने लगता है. क्यों कि वह सुविधा भोगी तंत्र को चुनौती देने की हैसियत में आ जाता है. 1974 में गुजरात से ही नव निर्माण आन्दोलन शुरू हुआ था जो बाद में जे पी के नेत्रित्व में देशव्यापी हुआ और उसी का परिणाम था लोकतंत्र में जो अधिनायकवादी तत्व पनप रहे थे उनका खात्मा. क्या आज के AAP की गतिविधियों को अराजक कहने वाले लोग जे पी को भी अराजक कहेंगे.
आन्दोलन करना अराजकता नहीं है बल्कि संविधान और नियम क़ानून के अनुसार काम न करना अराजकता है. जहां कोई राज न हो वह अराजकता है. लेकिन वह माहौल बना कैसे था. जब जब लोकशाही अपनी पटरी से उतरती है तो असंतोष बढ़ता है और जो आक्रोश उपजता है वह सड़क पर आ जाता है. कुछ इसे आन्दोलन कहते हैं तो कुछ अराजकता. लेकिन इसी का एक सुखद पक्ष यह भी है की. लोकशाही फिर पटरी पर आ जाती है.
आज का दिन उत्सव और आनंद का है. आज का दिन संकल्प का भी है. संकल्प एक होने में है. एक दिखने में है. एक साथ चलने में है .मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना के बावजूद भी अनेकता में एकता हमारी सबसे बड़ी ताक़त है. यह ताक़त बनी रहे. सौहार्द बढे. लोक मज़बूत हो . तंत्र लोकान्मुख हो. और हम उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हों. आज का यही संकल्प है. 

( विजय शंकर सिंह )


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