Wednesday 13 November 2013

खोट अर्थ शास्त्र में , और बहस इतिहास पर !

मुद्दों से भटकाना कोई हमारे नेताओं से सीखे. खराब हो रहा है देश का अर्थशास्त्र और बहस इतिहास पर  हो रही है। मतभेद सम्प्रदायों में बढ़  रहा है और बहस नेहरू , पटेल के बीच मतभेदों पर हो रही है। आतंकवाद से देश के निर्दोषों की जान जा रही है , बात दादी , पापा के मरने की हो रही है। मंहगाई से लोग पीड़ित हैं , और किसी भी नेता की जुबां कालाबाज़ारियों और जमाखोरों के खिलाफ नहीं खुल रही है। गोया एक साज़िश हो रही है कि सड़क पर पडी गन्दगी देख राह चलते लोगों से उलझते चलो। 

मोदी का आगमन क्या हुआ , कुछ लोग उन्हें हर मर्ज़ की दवा समझे लगे।  ऐसा ही कुछ राजीव गांधी के आगमन के समय 1984 में हुआ था।  लोगों  को लगा  था कि एक
नया और ऊर्जस्वित व्यक्तित्व देश की दशा और दिशा दोनों बदल के रख देगा। 1985 के संसदीय चुनाव में  जनता ने ऐतिहासिक और अपार बहुमत दिया था। लेकिन दो साल बाद ही जैसे नकली पेंट से पुती दीवारें छीजने लगती हैं और बदरंग दिखती हैं ,वैसे ही राजीव गांधी की सरकार भी होने लगी   उसी समय बोफोर्स के धमाके हुए और वी पी सिंह के अभियान ने उनकी हवा निकाल दी। वी पी सिंह , प्रधान मंत्री के पद पर नेहरू गांधी परिवार का मिथक तोड़ते हुए पहुंचे। यह अलग बात है कि दो विपरीत ध्रुवीय बैसाखी पर टिकी उनकी सरकार देश में फैलाये जा रहे साम्प्रदायिक उन्माद और राम मंदिर आंदोलन के षड़यंत्र की शिकार हो गयी।

.अक्सर हम भ्रष्टाचार , महंगाई की समस्या से जूझते हुए लोगों की दास्ताँ सुनते रहते हैं।  प्याज सहित सभी सब्ज़ियों और खाद्यान्न के दाम आसमान छू रहे हैं। आज के ही अखबार में पश्चिम बंगाल की एक खबर है, जिसमें सब्ज़ी की दूकान लूटे जाने का ज़िक्र है। हम एक अज़ीब हालात की और बढ़ रहे हैं। भ्रष्टाचार का यह आलम है कि , इतने अधिक घोटाले हैं कि शायद ही कोई ऐसा सौदा हो जिस पर अंगुलि उठी हो। पर हम उलझे हैं नेहरू और पटेल के अनावश्यक विवाद में।  उन महापुरुषों के राजनैतिक और लोकतांत्रिक तरीके से हुए स्वस्थ मतभेदों में।  दोनों में इतने मतभेदों के बाद भी एक दूसरे का सम्मान और साथ कभी नहीं छोड़ा।  और ही किसी आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग किया , जैसा कि आज के मतभेदों से ग्रस्त हमारे सभी दलों के  शिखर रहनुमा ,अक्सर करते रहते हैं।  और वह भी पीछे नहीं हैं जो खुद को  इस महान संस्कृति के ध्वजावाहक मानते हैं। 

अक्सर यह सवाल इधर पूछा जा रहा है कि , नेहरू की जगह पटेल होते तो देश की दशा और दिशा बेहतर रहती।  मैं तो कहूंगा कि कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।  बिना प्रधानमंत्री बने ही पटेल ने जो एकीकरण और देसी रियासतों का विलय कराया वह उनका अद्भुत प्रशासनिक और राजनैतिक कौशल था. पटेल जल्दी चले गए यह देश का दुर्भाग्य रहा। यह सवाल वैसा ही है जैसे मैं पूछूं कि पानीपत के तीनों युद्धों में अगर हमारी पराजय हुयी होती तो क्या होता। आप इस पर बौद्धिक विमर्श कर सकते हैं , शोध प्रबंध लिख सकते हैं , पर जो घटित हो गया है उसके लिए कोई भी अन डू का बटन काल के कंप्यूटर पर नहीं है और ही ऐसा कोई सोफ्ट्वेयर विकसित किया जा सका है.  इतिहास की अपनी गति है।  जैसे जैसे काल बीतता जाता है , इतिहास अपने पद चिह्न छोड़ता जाता है इतिहास और उस के परिणामों पर बहस होनी चाहिए पर यह किसी अकादमिक क्षेत्र में हो तो उचित है।  

आज मोदी या भाजपा यह नहीं बता रहे हैं कि कांग्रेस के कुशासन से उत्पन्न मंहगाई को कैसे नियंत्रण में लाया जा सकेगा ? कोई यह भी नहीं बता रहा है कि जमाखोरों और कालाबाज़ारियों के खिलाफ किस तरह से अंकुश लगाया जाएगा और कौन से क़ानून लागू किये जायेंगे ? किसी भी दल के किसी भी नेता का बयान कभी  भी जमाखोरों और कालाबाजारिये  व्यापारियों के खिलाफ नहीं आता, क्यों ? आप खुद सोचिये ? बात होती है , मंदिर की , बात होती है नेहरू के असफलता की।  बात होती है गांधी के चरित्र की।  बात होती है भारत विभाजन के दोषियों की।  बात होती है एकता के प्रतिमा की और पटेल की और इरादा है इस सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करने की।

देश का अर्थशास्त्र खराब है , इतिहास नहीं।  वही इतिहास की बात कर रहे हैं जिनकी विचारधारा के लोग आज़ादी के संघर्ष के समय जाने कहाँ थे।  जब वंदे मातरम् और भारत माता कि जय के नारे के साथ लोग शहीद हो रहे थे और जेलों को भर रहे थे तो इतिहास की गलत व्याख्या करने वाले विचारधाराओं के लोग कहाँ थे।  मुझे यह सवाल अक्सर कौंधता है और मैं अक्सर पूछता हूँ। इतिहास बुरा होता है अच्छा वह सिर्फ होता है। हमें उस से कुछ सीख सकते हैं पर उसे बदल नहीं सकते। देश के इतिहास से सीखना है तो यह सीखिए कि सामाजिक ताने बाने और  सांझी विरासत और संस्कृति का टूटना , सिर्फ दुखद होगा , बल्कि आत्मघाती भी

बेहतर होगा की हमारे नेतागण हमारी वास्तविक समस्याओं का समाधान ढूंढें। नेहरू और पटेल अगर दुबारा सकते तो कर यही कहते कि हमारा विवाद इतिहास के शोधार्थियों के लिए छोड़ें और अपनी ऊर्जा देश की उन्नति  में लगाएं !
-vss.

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