Monday 17 June 2013

Cartoonscape, June 17, 2013 | The Hindu


दरअसल समाजवादी विचारधारा के नीतीश कुमार और शरद यादव धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर समझौता नहीं कर सकते। एनडीए में नेता के सवाल पर पहले भी ऐसी खींचतान हो चुकी है। लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या आंदोलन से भाजपा को एक खास मुकाम तक पहुंचा दिया, लेकिन वह खुद प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। सिर्फ इस वजह से कि सहयोगी दलों को उनकी कट्टरपंथी छवि स्वीकार नहीं थी। खुद श्री आडवाणी को भी इसका मलाल रहा है। उन्होंने 6 दिसंबर 1997 को कहा भी था कि अयोध्या आंदोलन से भाजपा को फायदा हुआ, लेकिन उन्हें व्यक्तिगत नुकसान हुआ। ऐसे में नरेन्द्र मोदी को प्रोजेक्ट करने से पहले भाजपा इतना मन तो बना ही चुकी होगी कि चाहे कोई रहे या जाए, वह अपने एजेंडे पर वापस लौटेगी। यही जदयू की चिंता का सबब भी था। रविवार को एनडीए का संयोजक पद छोड़ने की घोषणा करते हुए उन्होंने इस चिंता का उल्लेख किया। शरद ने कहा कि हमारा गठबंधन नेशनल एजेंडा फॉर गवर्नेस पर आधारित था। अटल विहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार सरीखे नेता की मौजूदगी में यही तय हुआ था कि अनुच्छेद 370, यूनिफार्म सिविल कोड और अयोध्या जैसे मसले को भाजपा नहीं उठाएगी। लेकिन भाजपा के ताजा घटनाक्रमों से यह संकेत मिल गए कि वह फिर से अपने एजेंडे पर लौटना चाहती है।
भाजपा और जदयू में अनेक ऐसे नेता हैं जिनका मानना था कि गठबंधन टूटे भी तो एक सम्मानजनक तरीके से। लेकिन इसकी गुंजाइश बची ही नहीं। गोवा के घटनाक्रमों के बाद नीतीश कुमार 13 जून को सेवा यात्रा पर कटिहार चले गए और 14 को वापस लौटे। उसी समय से लगने लगा था कि वहां से उनके लौटने के बाद अंतिम फैसला हो जाएगा। उधर, इसी दो दिन में भाजपा ने कई अहम फैसले ले लिए। भाजपा कोटे के मंत्रियों ने काम करना छोड़ दिया। 15 जून को मुख्यमंत्री ने सुशील कुमार मोदी और एनडीए के राज्य संयोजक नंदकिशोर यादव को हालात पर चर्चा के लिए बुलाया, लेकिन दोनों नहीं गए। अगली सुबह कैबिनेट की बैठक में भी भाजपा के मंत्री नहीं गए। दोनों दलों में बातचीत तक बंद हो गई। कटुता इतनी बढ गई कि अलग हुए तो उसका ही जश्न मना लिया। जाहिर है कि अब दोनों का साथ चलना मुमकिन नहीं था। बहरहाल, अब एनडीए के दो पार्टनर में एक सत्ताधारी तो दूसरा सबसे बड़ा विपक्षी दल है। जदयू की सबसे बड़ी चुनौती है 19 जून। इसी दिन उसे विश्वास मत हासिल करना है। आगामी चुनावों में बिहार में एक रोचक शास्त्रर्थ सुनने को मिलेगा। पिछड़े राज्यों का अलग फ्रंट बनाने की पहल तेज होगी। केन्द्र पर पिछड़ापन का मानक बदलने का दबाव बढ़ेगा। गठबंधन में रहते भी भाजपा इन मुद्दों पर मुखर नहीं हो सकी। बहरहाल, वह नरेन्द्र मोदी के कंधों पर चुनावी वैतरणी पार करने की रणनीति पर चलेगी.


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