Sunday 21 April 2013

क्या हम अराजकता की ओर जा रहे हैं ...




क्या हम अराजकता की ओर जा रहे हैं ...

कुछ दिनों पहले द हिन्दू में यह कार्टून छापा था . डार्विन के विकासवाद के प्रतिलोम पुलिस एक सभ्य मनुष्य से वापस आदिम युग में जा रही है . संचार और परिवहन के साधन तो बढे हैं पर सच में हमारी मानसिकता आदिम होती जा रही है . पटना , पंजाब , अलीगढ , या दिल्ली हर जगह इधर पुलिस व्यवहार की जो तस्वीरें दिखी हैं शायद वही इस कार्टूनिस्ट के लिए थीम  बनी  होंगी . कार्टून आप को हंसाता है और फिर अचानक गंभीर कर देता है . इस कार्टून ने भी मुझे ऐसा ही किया .

पुलिस की कार्य क्षमता पर और व्यावसायिक दक्षता पर अरसे से प्रश्न चिह्न उठते रहे हैं . इधर हाल के वर्षों में पुलिस के सारे विभाग चाहे वह सी बी आई हो या जिला पुलिस , सभी आलोचना के शिकार होते रहे हैं . कभी कभी यह भी लोगों को लग जाता रहा है कि ऐसी पुलिस से बेहतर है बिना पुलिस के ही रहा जाय . ऐसी स्थिति रातों रात नहीं आयी . जब जस्टिस मुल्ला ने इलाहांबाद हाई कोर्ट में एक फैसले में , उत्तर प्रदेश पुलिस को अपराधियों का संगठित गिरोह कहा था , तब भी तो स्थति ऐसी ही रही होगी . पर उस समय मीडिया का इतना प्रसार नहीं हो पाया था , इस लिए बहुत सी घटनाएं लोगों को पता भी नहीं चल पाती थीं . पर अब जन संचार के माध्यम भी बढे हैं , लोगों की जागरूकता भी बड़ी है ,तो वह सारी कमियाँ उभर कर सतह पर आ जा रही हैं .

अभी पिछले साल दामिनी बलात्कार काण्ड में पूरी दिल्ली उमड़ चुकी थी , इतना आक्रोश था कि इसकी गूँज पूरी दुनिया में हुयी . एक क़ानून भी बना और उस के एक अभियुक्त से आत्म ह्त्या भी कर ली . मुकदमा अभी अदालत में चल रहा है . पूरे देश को उस मामले में फैसले की प्रतीक्षा है . कमो बेश अभी 6 वर्षीय बच्ची के साथ हुए दुष्कर्म के मामले में भी वैसा ही जन आक्रोश उभर रहा है . परिणाम  इस का भी वही होगा . धरना प्रदर्शन , मोमबत्तियों का जलना , और राजनेताओं के उत्तेजक भाषण , और फिर टाँय टाँय फिस्स . सभी कह रहे हैं , पुलिस को संवेदनशीलता बरतनी चाहिए , सभी कह रहे हैं ऐसे दरिंदों को सरे आम फांसी दे देनी चाहिए , सभी कह रहे हैं , इने जनता को सौंप देना चाहिए और जनता न्याय करे . और जो इस कोरस में शामिल नहीं हैं , वह संवेदनहीन माने जा रहे हैं , सुषमा स्वराज का बयान आया कि इन्हें फांसी दो . सोनिया गंधी का बयान है , कुछ करना होगा . गृह मंत्री दिल्ली पुलिस में शीर्षस्थ परिवर्तन करने की सोच रहे हैं . मैं दावे के साथ कहता हूँ आप रोज़ पुलिस में तबादले कीजिये पर कोई विशेष फर्क न तो संवेदनशीलता पर पडेगा और न ही अपराधों पर .
क्यों कि व्यक्ति गौड़ है , और तंत्र ही सब कुछ चलाता है . अभी पुलिस जिस तरह से राजनितिक खेमेबंदी में बँट  चुकी है उस से किसी भी प्रकार की उम्मीद करना उचित नहीं हैं . उत्तर प्रदेश की पुलिस घोषित रूप से सपा और बसपा मानसिकता में बंट गयी है . खुले आम  हर सिपाही जानता है कि कौन अधिकारी किस दल विशेष से जुड़ा है . और किस नेता के यहाँ हाजिरी बजा रहा है . यह सब जानने के बाद अपने अधिकारियों के प्रति अधीनस्थों का क्या रवैया व्रहेगा इस का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है . हर रैंक का अधिकारी चाहे वह सिपाही हो, या  उच्चतर अधिकारी अपने अपने जुगाड़ के अनुसार राजनितिक आकाओं से संपर्क साधता  रहता है . कुछ अपवाद भी हैं और वह हर रैंक में हैं , वे हत मनोबल कहीं हाशिये पर पड़े रहते हैं . उनकी नैतिकता , उनकी साफगोई , उनकी दक्षता , उनके किसी काम नहीं आती क्यों कि , उन्हें कोई राजनीतिक व्यक्ति पसंद नहीं करता . राजनीती के इस गलत दखलंदाजी ने पुलिस को एक व्यावसायिक दक्ष संगठन के बजाय इसे  आधुनिक ज़मींदारों का लठैत बना कर रख   दिया है . इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि  चेन ऑफ़ कमांड जो एक सैनिक और प्रशिक्षित बल की होनी चाहिए वह टूट गयी . और यह विश्वास जम गया है  कि राजनितिक आका अगर खुश हैं तो उनका  कुछ भी नहीं बिगड़ सकता है.

मैं  राजनितिक हस्तक्षेप के विरुद्ध नहीं हूँ . हम एक लोकतंत्र में रह रहे हैं लोकतंत्र में जन और उसके प्रतिनिधि का सर्वोच्च स्थान है , लेकिन हस्तक्षेप सिर्फ अपने और अपने दल के हित में है तो निंदनीय है, और अगर क़ानून के हित में है तो उस का स्वागत किया जाना चाहिए . पुलिस सुधार का मामला अक्सर तभी गरमाता है जब हम पुलिस की ज्यादती देखते है . मा . सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधार की एक जन हित   याचिका पर जो ,  श्री प्रकाश सिंह ने दायर की है पर गंभीरता से सुनवाई की और केंद्र तथा राज्यों को निर्देश भी दिए पर उस पर कोई विशेष कार्यवाही नहीं कर के , नेतागण भी भीड़ के कोरस के साथ अपराधियों को फांसी की मांग करने लगे . यह हास्यास्पद भी है और खुद को जनता के साथ जुड़ा दिखाने  की कवायद भी . पुलिस सुधार और क़ानून व्यवस्था का रोना सभी रोते हैं . लेकिन इसके लिए कोई भी दल और कोई भी सरकार गंभीरता से विचार नहीं करती है . यह दुखद है .

भविष्य की स्थिति और  भी भयावह है . अपराध होंगे और बढ़ेंगे, क्यों की, आबादी बढ़ रही है , लोगों की आकांक्षाएं , अपेक्षाएं बढ़ रही हैं , नैतिक मूल्य घट रहे हैं,.  अगर सब कुछ क़ानून व्यवस्था से जुड़ा  है तो, आपराधिक न्याय प्रणाली को ततकाल प्राथमिकता में लाकर उस का सुधार करना होगा . अन्यथा ऐसे ही आक्रोश बढ़ता रहेगा और जब आपराधिक न्याय व्यवस्था अपने उद्देश्य में सफल नहीं रहेगी तो अराजकता पनपेगी जो समाज के लिए आत्मघाती होगा .
-vss

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